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________________ परीषह-प्रविभक्ति ५३ अध्ययन २ : श्लोक ३२ टि० ५६,६० उसने देखा कि उसके तीनों साथी हत-प्रहत हैं। पूछने पर होता है, कभी नहीं। उसका अपना स्व है-समता। उसी से वह उन्होंने कहा-पिशाच ने हमारी यह दशा की है। वासुदेव इस परीषह का पार पा सकता है। बोला—वह क्रोधरूपी पिशाच था। मैंने उसे शान्ति या क्षमा से ५९. रोग को (दक्खं) जीत लिया है। प्रस्तुत श्लोक में दुःख शब्द रोग का वाचक है।' दुःख चार जैसे क्रोध को क्षमा से जीता जा सकता है, वैसे ही अलाभ हैं-जन्म, बढ़ापा, रोग और मृत्यु।। को संतोष से जीता जा सकता है। रोग दो प्रकार के होते हैं—आन्तरिक और बाह्य । चूर्णिकार वासूदेव का पुत्र 'ढंढ' भगवान् अरिष्टनेमि के पास ने तीन प्रकार के रोगों का उल्लेख किया है।चातुर्याम विनय धर्म को स्वीकार कर प्रव्रजित हो गया। वह १. दातिक-वायु के प्रकोप से होने वाला। समृद्ध गांव-नगरों में विहरण करता, पर कहीं भी उसे भिक्षा २. पैत्तिक—पित्त के प्रकोप से होने वाला। नहीं मिलती। यदि कभी कुछ प्राप्त होता तो वह 'जं वा तं वा'। ३. श्लेष्मज---श्लेष्म के प्रकोप से होने वाला। वह जिस घर में जाता, उस घर से दूसरे मुनियों को भी भिक्षा बाह्य रोग आगन्तुक होते हैं। वे विभिन्न प्रकार के प्राप्त नहीं होती। सबके अन्तराय होता। उसने यह अभिग्रह कर कीटाणुओं से उत्पन्न होकर पीड़ित करते हैं। आन्तरिक रोग लिया कि मुझे दूसरे मुनियों का लाभ नहीं लेना है। एक बार भावनात्मक असंतुलन तथा ईर्ष्या, द्वेष, अतिराग आदि आवेगों भगवान् द्वारका नगरी में पधारे। वासुदेव ने पूछा--भंते! आपके से उत्पन्न होकर आशुघाती रोग के रूप में प्रगट होते हैं। साधु समुदाय में दुक्कर-कारक मुनि कौन हैं? भगवान् ने अन्तव्रण, अल्सर आदि रोग भावना की विकृति से होने वाले कहा-ढंढण अनगार। पुनः पूछा-कैसे भंते! भगवान् ने रोग हैं। वे भीतर ही भीतर बढ़ते हैं और फिर बाहर में प्रगट कहा—यह मुनि अलाभ परीषह को समभाव से सह रहा है। होकर व्यक्ति की लीला ही समाप्त कर डालते हैं। 'भंते! वे कहां हैं?' भगवान् बोले-जब तुम नगर में प्रवेश करोगे तब वह सामने मिल जाएगा। स्थानांग सूत्र में रोगोत्पत्ति के नौ कारण निर्दिष्ट हैं - वासुदेव ने नगर में प्रवेश करते ही देखा कि एक अनगार अति आहार, अहित भोजन, अति निद्रा, अति जागरण सामने से आ रहा है। उसका शरीर सूखकर लकड़ी जैसा हो ।' र आदि-आदि। गया है। वह केवल हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है। परन्तु ६० उसके मुखमण्डल का शान्तरस टपक रहा है। उसका पराक्रम साध्वी गले के केन्सर से पीड़ित थीं। वह बढ़ता ही जा अस्खलित है। वह ढंढण अनगार था। वासूदेव हाथी से नीचे रहा था। पर साध्वी समता में लीन थीं। उन्हें आलंबन सत्र उतरे। वंदना की। एक सेठ ने वासुदेव को वंदना करते देखा। मिला--'आत्मान्यः पुद्गलश्चान्यः'-आत्मा अन्य है, शरीर संयोगवश ढंढण अनगार उसी सेठ के घर गए। सेट ने उसको अन्य है। इस आलंबन सूत्र की सतत भावना से उनके मोदक बहराए। उसने भगवान् के पास आकर पूछा-भंते! क्या भावों में परिवर्तन हुआ और वे केन्सर की भयंकर पीड़ा मेरा लाभान्तराय कर्म क्षीण हो गया? भगवान् बोले-नहीं। 'क्यों होते हुए भी, उसकी संवेदना से मुक्त हो गई। उनसे पूछा जाता, भगवन्! आज मुझे भिक्षा में मोदक मिले हैं। भगवान् बोले- पीड़ा कैसे है? वे कहतीं, पीड़ा शरीरगत है, आत्मगत नहीं। आज जो भिक्षा प्राप्त हुई है, उसका मूल कारण है वासुदेव शरीर मेरा नहीं है, पीड़ा भी मेरी नहीं है। आत्मा मेरी है। का वंदन करना । उसको देखकर ही सेठ के मन में भक्ति का उसमें कोई पीड़ा नहीं है। कुछ महीनों तक उस असह्य पीड़ा की भाव उमड़ा है। ढंढण अनगार ने सोचा—मैं दूसरे के लाभ स्थिति में रहकर साध्वी ने पंडित मरण का समाधिपूर्वक वरण पर जीना नहीं चाहता। अब मैं इस भिक्षा को दूसरों को दे भी किया। नहीं सकता। यह सोचकर ढंढण अनगार भावना की शुभ श्रेणी उनका सूत्र थामें आरोहण करते-करते केवली बन गए। उसी भव में वे मुक्त 'असासए सरीरम्मि, विन्नाऐ जिणसासणे। हो गए। कम्मे वेइज्जमाणम्मि, लाभो दुःखऽहियासणं।।' मुनि लाभ-अलाभ में सम रहे। कभी कुछ मिल सकता है, --शरीर अशाश्वत है। जिन शासन को जान लेने पर कभी कुछ भी नहीं। उसका अपना कुछ भी नहीं होता। सारी यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि कर्मों को समभाव से आवश्यकताएं याचना से पूरी होती हैं। अतः उसे कभी लाभ सहना—उनसे उदीरित दुःखों में सम रहना लाभप्रद होता है। ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७७ : स तु रोगो वातिकः श्लेष्मजश्चेति। ४. ठाणं ६।१३। १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७७ : रोग दुक्खं वा। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ११८ : दुःखयति दुःखं, प्रस्तावाद् ज्यरादिरोगः। उत्तरज्झयणाणि १६१५ : जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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