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उत्तरज्झयणाणि
५२ अध्ययन २: श्लोक ३०,३१ टि० ५५-५५
थी। पुत्रवधू साज श्रृंगार में लग गई। वह बछड़े को चारा-पानी कितना अभागा हूं कि मुझे कुछ भी नहीं मिलता। दोनों स्थितियों देना भूल गई। फिर अचानक उसे बछड़े की याद आई। वह उसी में वह धैर्य रखे, सम रहे। वह यह सोचे, आज मुझे यह पदार्थ रूप में चारा देने आई। बछड़े ने उसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं मिला है तो क्या, संभव है कल या परसों या अगले दिन नहीं देखा। वह चारा खाने में मस्त हो गया। उसी प्रकार भिक्षु तो मिल सकेगा। इस आलंबन-सूत्र का जो सहारा लेता है, उसे भी एषणायुक्त भोजन की गवेषणा में लीन रहे।'
अलाभ कभी नहीं सताता। इस आलंबन-सूत्र का मूल है—धैर्य । ५५. हाथ पसारना सरल नहीं है (पाणी नो सुप्पसारए) एक युवक टालस्टाय के पास आकर बोला-महाशय!
याचना के लिए दूसरों के आगे हाथ पसारना—'मझे आपकी सफलता का सूत्र क्या है? टालस्टाय ने कहा-धैर्य। दे'—यह कहना सरल नहीं है। जैसे
युवक ने दो-तीन बार पूछा और उसे यही उत्तर मिला। वह धणवइसमोऽविदो अक्खराई लज्जं भयं च मोत्तणं। असमंजस से घिर गया। वह बोला—यह भी कोई सफलता का देहित्ति जाव ण भणति पडइ मुहे नो परिभवस्स। सूत्र होता है? क्या धैर्य रखने से कभी भी चलनी में पानी ठहर
कुबेर के समान धनवान व्यक्ति भी जब तक लज्जा और सकता है? असंभव है। आप बात छुपा रहे हैं, सच-सच बताएं। भय को छोड़कर 'देहि' (दो) यह नहीं कहता तब तक उसका
टालस्टाय ने कहा-मित्र! जीवन की सफलता का यह महान् कोई तिरस्कार नहीं करता अर्थात धनवान व्यक्ति 'मझे दो' सूत्र है। चलनी में पानी ठहर सकता है यदि धैर्य रखा जाए। ऐसा कह दूसरों के आगे हाथ पसारता है तब वह भी तिरस्कार युवक झुझला उठा। वह बाला-कस! कब तक धय रखा जाए! का भागी बन जाता है।
टालस्टाय ने कहा, धैर्य तब तक रखो जब तक कि पानी जम याचना करना मृत्यु के तुल्य है। नीतिकार ने कहा है- कर बफ न बन जाए। बर्फ चलनी में ठहर सकती है। गात्रभंगः स्वरे दैन्यं, प्रस्वेदो वेपथुस्तथा। ५८. उसे अलाभ नहीं सताता (अलामो तं न तज्जए) मरणे यानि चिन्हानि, तानि चिन्हानि याचने।।
व्याख्याकारों ने यहां एक लौकिक उदाहरण प्रस्तुत किया मृत्यु के समय जो लक्षण प्रकट होते हैं-शरीर के है। अवयवों का ढीला पड़ जाना, वाणी में दीनता, पसीना तथा एक बार वासुदेव, बलदेव, सत्यक और दारुकये चारों कंपन आदि वे सभी लक्षण याचना के समय भी प्रकट होते हैं। घोड़ी पर चढ़कर घूमने निकले। घोड़े तीव्रगामी थे। वे चारों एक ५६. गृहवास ही श्रेय है (सेओ अगारवासु त्ति)
भयंकर अटवी में आ पहुंचे। रात का समय होने वाला था। वे
चारों एक न्यग्रोध वृक्ष के नीचे विश्राम करने ठहरे। रात्री का याचना के परीषह से पराजित होकर भिक्षु ऐसा न सोचे प्रथम पहर। सभी सो गा
प्रथम प्रहर। सभी सो गए। दारुक जाग रहा था। इतने में ही कि गृहवास ही श्रेयस्कर है, अच्छा है, क्योंकि वहां कुछ भी क्रोध पिशाच का रूप धारण कर वहां आया और दारुक से किसी से मांगना नहीं पड़ता, याचना नहीं करनी पड़ती। वहां बोला---'मैं भूखा हूं। ये जो सो रहे हैं, इनको खाकर अपनी अपने पुरुषार्थ से अर्जित कमाई का खाना होता है और वह भी भूख मिटाऊंगा। अन्यथा तू मेरे साथ लड़।' दारुक ने उससे दीन, अनाथ आदि को संविभाग देकर ही खाना होता है। लड़ना प्रारंभ किया। दारुक उस पिशाच पर काबू पाने में इसलिए गृहवास ही अच्छा है।'
असफल रहा। उसका क्रोध बढ़ता गया। पिशाच का क्रोध भी ५७. (श्लोक ३०)
वृद्धिंगत होता गया। प्रहर बीतते-बीतते दारुक निष्प्राण होकर
नीचे लुढ़क गया। लाभ और अलाभ-यह एक द्वन्द्व है। मुनि को प्रत्येक
दूसरे प्रहर में सत्यक उठा। पिशाच ने उसे निष्प्राण कर पदार्थ याचित मिलता है। इसलिए उसे कभी वस्तु की प्राप्ति हो
दिया। तीसरे प्रहर में बलदेव की भी यही गति हुई। जाती है और कभी नहीं भी होती। अप्राप्ति में उसका मन
रात्री का चौथा प्रहर। वासुदेव उठा। पिशाच ने उसे विभाजित न हो, इसलिए बत्तीसवें श्लोक में एक आलंबन सूत्र ललकारा। दोनों लडने लगे। पिशाच जैसे-जैसे लड़ता, जैसे जैसे निर्दिष्ट है। जो मुनि लाभ में हर्षित होता है, वह अलाभ में दांव-पेच खेलता, वासुदेव प्रशंसा के स्वर में कहता—'अहो! विषण्ण होगा ही। इस स्थिति से बचने के लिए वह दोनों कितने बलसंपन्न हो तुम! अपार है तुम्हारी शक्ति। ज्यों-ज्यों अवस्थाओं में सम रहे। वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर यह न सोचे पिशाच इन प्रशंसा के शब्दों को सुनता, उसका रोष कम हो कि मैं कितना लब्धिमान् हूं कि जो चाहता हूं वह प्राप्त हो जाता जाता। चौथे प्रहर के बीतते-बीतते पिशाच शक्तिहीन हो गया। है। वस्तु की प्राप्ति न होने पर यह भी न सोचे कि ओह! मैं वासुदेव ने उसे उठाकर एक ओर डाल दिया। प्रभात हुआ।
१. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७४। २. वही, पृ. ७४। ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पत्र. ७४ ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ११७।
४. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७५,७६ ।
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ११८ । (ग) सुखबोथा, पत्र ४५।
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