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________________ परीषह-प्रविभक्ति ५१ अध्ययन २ : श्लोक २८,२६ टि० ५३,५४ बार मुनि स्कन्दक ने आचार्य से पूछा-भंते! मैं अपनी बहिन वरदान है और आलसी--परिग्रही के लिए मांगना अभिशाप है। के गांव कुंभकार नगर में जाना चाहता हूं। आप आज्ञा दें। विनोबाभावे ने कांचन-मुक्ति का प्रयोग किया। उन्होंने कहा'आचार्य बोले-वहां जाने पर मारणान्तिक कष्ट सहने होंगे। जहां किंचनता है वहां मांगना, भिक्षा करना, वर्जित होना चाहिए। मुनि स्कन्दक ने पूछा---'मृत्यु, भले ही हो। पर क्या हम अकिंचन त्यागी संन्यासी के लिए याचना विहित है, सम्मत है। आराधक होंगे या विराधक?' आचार्य बोले--तुमको छोड़कर सभी याचना कठिन कर्म है। नीतिकार ने दाता और याचक की मुनि आराधक होंगे। उसने कहा-चलो, कोई बात नहीं। पांच स्थिति का सुन्दर वर्णन इस श्लोक में प्रस्तत किया है... सौ में से चार सौ निन्यानवे व्यक्ति तो आराधना कर अपना 'एकेन तिष्ठाताऽधस्ताद् अन्येनोपरि तिष्ठता। कल्याण करेंगे। एक के विराधक होने से क्या अन्तर आता है? दातृयाचकयोर्भेदः, कराभ्यामेव सचितः।। मुनि स्कन्दक अन्य पांच सौ मुनियों के साथ कुंभकार देने वाले का हाथ ऊपर रहता है और लेने वाले का हाथ नगर में पहुंचा। पालक ने अवसर का लाभ उठाते हुए नीचे। यही दाता और याचक की स्थिति का द्योतक है। मुनि-निवास के चारों ओर शस्त्राशस्त्र गड़ा दिए। राजा दंडकी एक राजा अपने गुरु के पास गया और बोलाको मुनि के प्रति उकसाते हुए उसने कहा-यह आपका राज्य 'गुरुदेव! अहंकार मेरी साधना में बाधक बन रहा है। मुझे छीनने आया है। उद्यान के चारों ओर शस्त्रास्त्र छुपा कर रखे उसकी मुक्ति का उपाय बताएं।' गुरु बोले- "बहुत कठिन है अहं से मुक्त होना और वह भी एक राजा के लिए, जो सारे हैं। आपको विश्वास न हो तो जांच कराएं। राजा ने गुप्तचर देश पर शासन करता है।" राजा ने आग्रह किया। उसकी भेजे। बात सही निकली। उसने सभी मुनियों को पुरोहित पालक उत्कट भावना को देखकर गुरु ने कहा- "उपाय सरल है, पर को सौंप दिया। उसने सभी को कोल्हू में पीलने का आदेश दे तुम्हारे लिए वह कठिन हो सकता है। यदि तुम वास्तव में ही दिया। एक-एक कर मुनि कोल्हू में पील दिए गए। सभी ने अहं से छुटकारा पाना चाहते हो तो अपने राज्य के इस बड़े उत्कृष्ट अध्यवसायों से इस दारुण वध परीषह को सहा, नगर में तुम सात दिन तक भिक्षा मांगने निकलो और घर-घर केवलज्ञान प्राप्त कर सभी सिद्ध हो गए। अब केवल दो मुनि से भिक्षा लेकर जीवन-निर्वाह करो।" राजा बोला—"भंते! मांगना बचे थे--एक बाल मुनि और एक स्कन्दक। स्कन्दक का मन अत्यन्त कठिन कर्म है और वह भी अपने ही राज्य में, जहां करुणाई हो गया। उसने अधिकारी से कहा-इस बालक पर मैं इतना सम्मानित और पूजनीय हूं। आप कोई दूसरा उपाय करुणा करो। मैं कोल्हू में पीले जाते हुए इस बालक को नहीं निर्दिष्ट करें।" गुरु बोले- "तुम्हारे लिए यही उपाय कारगर हो देख सकता। पहले मुझे पील दो। पालक हंसा। उसने स्कन्दक सकता है। यदि अहंकार से मुक्त होना चाहते हो तो ऐसा करना को और अधिक पीड़ित करने के लिए बाल मुनि को कोल्हू में ही होगा।" राजा गुरु की बात मान, अकेला ही, नगर में मांगने डाल दिया। बाल मुनि ने अध्यवसायों की निर्मलता बनाए रखी। निकला। हाथ में पात्र था। लोगों ने देखा। सभी आश्चर्यचकित वह सिद्ध हो गया। स्कन्दक भान भूल बैठा। कोल्हू में पीले जाते रह गए। किसी ने आक्रोश व्यक्त किया, किसी ने घर से निकाल समय निदान कर वह अग्निकुमार देव बना और पूरे जनपद दिया। पर राजा समभाव से सब कुछ सहता हुआ, घर-घर को जलाकर राख कर दिया। गया। इस प्रकार सात दिन बीत गए। वह गुरु के पास आकर सभी मुनि वध परीषह को सहकर आराधक बन गए। बोला, पूज्य गुरुदेव! उपाय कारगर हुआ। मुझे जो पाना था, वह मुनि स्कन्दक ने इस परीषह को नहीं सहा । वह विराधक हआ। मैंने पा लिया। अहं विलीन हो गया। ५३. (सव्वं से.... किंचि अजाइयं) ५४. गोचराग्र में (गोयरग्ग....) याचना अहंकार-विलय का प्रयोग है। जिस व्यक्ति को 'गोचर' का अर्थ है---गाय की भांति चरना। गाय अपने रोटी और पानी भी मांगने से मिलता है, रोटी और पानी के से परिचित या अपरिचित का भेदभाव किए बिना ही प्राप्त भोजन लिए भी जिसको दूसरों के आगे हाथ पसारना पड़ता है, उसमें को ग्रहण कर लेती है, वैसे ही भिक्षु भी परिचित या अपरिचित अहंकार का भाव कैसे जागेगा? 'याचना' अहंकार-मुक्ति का व्यक्तियों या घरों से भिक्षा ग्रहण करता है। परन्तु गाय 'यथाकथंचित' एक आलंबन बनता है। तो कुछ भी ले लेती है, वैसे भिक्षु नहीं ले सकता। वह सदा कुछ कहते हैं, साधु-जीवन का पलायन का जीवन है। एषणायुक्त भोजन ही लेता है। यही 'अग्ग' (सं. अग्र्यं) शब्द का साधु कोई उत्पादक श्रम नहीं करता। एक ओर मांगना कठिन विशेष अर्थ है। होता है तो दूसरी ओर यह आरोप लगाया जाता है। आकिंचन्य चूर्णिकार ने 'अग्ग' शब्द के दो अर्थ किए हैं—प्रधान और उत्पादन श्रम में कोई संबंध नहीं है। और एषणायुक्त। उन्होंने यहां बछड़े के उदाहरण का संकेत सूफी परम्परा में कहा गया कि साधु के लिए मांगना किया है—पर्व का दिन था। घर की मालकिन अन्यत्र गई हुई १. सुखबोधा, पत्र ३६। २. बृहद्वृत्ति, पत्र ११६ । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ७४ : अग्ग पहाणं, जतो एसणाजुत्तं । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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