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________________ प्रमादस्थान ५५९ अध्ययन ३२ : श्लोक ५३-६१ ५३. गंधाणुगासाणुगए च जीवे गन्धानुगाशानुगतश्च जीवः मनोज्ञ गन्ध की अभिलाषा के पीछे चलने वाला चराचरे हिंसइणेगरूवे। चराचरान् हिनस्त्यनेकरूपान्।। पुरुष अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा चित्तेहि ते परितावेइ बाले चित्रैस्तान् परितापयति बालः करता है। अपने प्रयोजन को प्रधान मानने वाला पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे।। पीडयत्यात्मार्थगुरुः क्लिष्टः।। वह क्लेश-युक्त अज्ञानी पुरुष नाना प्रकार के उन चराचर जीवों को परितप्त और पीड़ित करता है। ५४. गंधाणुवाएण परिग्गहेण गन्धानुपातेन परिग्रहेण गन्ध में अनुराग और ममत्व का भाव होने के उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। कारण मनुष्य, उसका उत्पादन, रक्षण और व्यापार वए विओगे य कहिं सुहं से? व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य ? करता है। उसका व्यय और वियोग होता है। इन संभोगकाले य अतित्तिलाभे।। सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभः।। सबमें उसे सुख कहां है? और क्या, उसके उपभोग-काल में भी उसे अतृप्ति ही होती है। ५५. गंधे अतित्ते य परिग्गहे य गन्धे अतृप्तश्च परिग्रहे च जो गन्ध में अतृप्त होता है, उसके परिग्रहण में सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढिं। सक्तोपसक्तो नोपैति तुष्टिम्। आसक्त-उपसक्त होता है, उसे संतुष्टि नहीं मिलती। अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य वह असंतुष्टि के दोष से दुःखी और लोभ-ग्रस्त लोभाविले आययई अदत्तं ।। लोभाविल आदत्ते अदत्तम् ।। होकर दूसरे की गन्धवान् वस्तुएं चुरा लेता है। ५६. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो तृष्णाभिभूतस्य अदत्तहारिणः वह तृष्णा से पराजित होकर चोरी करता है और गंधे अतित्तस्स परिग्गहे य। गन्धे अतृप्तस्य परिग्रहे च। गन्ध-परिग्रहण में अतृप्त होता है। अतृप्ति-दोष के मायामुसं वड्डइ लोभदोसा माया-मृषा वर्धते लोभदोषात् कारण उसके माया-मृषा की वृद्धि होती है। माया-मृषा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से।। तत्रापि दुःखान्न विमुच्यते सः।। का प्रयोग करने पर भी वह दुःख से मुक्त नहीं होता। ५७. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य मृषा पश्चाच्च पुरस्ताच्च असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। प्रयोगकाले च दुःखी दुरन्तः।। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय एवं अदत्ताणि समाययंतो एवमदत्तानि समाददानः होता है। इस प्रकार वह गन्ध से अतृप्त होकर चोरी गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो।। गन्धे अतृप्तो दुःखितोऽनिश्रः।। करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। ५८. गंधाणूरत्तस्स नरस्स एवं गन्धानरक्तस्य नरस्यैवं गन्ध में अनुरक्त पुरुष को उक्त कथनानुसार कदाचित् कत्तो सुह होज्ज कयाइ किंचि?। कतः सखं भवेत कदापि किंचिता? किचित् सुख भी कहां से होगा? जिस उपभोग के तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं लिए वह दुःख प्राप्त करता है, उस उपभोग में भी निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ।। निर्वर्त्तयति यस्य कृते दुःखम् ।।। क्लेश-दुःख (अतृप्ति का दुःख) बना रहता है। ५६. एमेव गंधम्मि गओ पओसं एवमेव गन्ध गतः प्रदोषं इसी प्रकार जो गन्ध में द्वेष रखता है, वह उत्तरोत्तर उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। उपैति दुःखौधपरम्पराः। अनेक दुःखों को प्राप्त होता है। प्रद्वेषयुक्त चित्त पदुट्ठचित्तो य चिणाइ कम्म प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म वाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है। वही परिणाम जं से पुणो होइ दुहं विवागे।। यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके।। काल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है। ६०. गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो गन्धे विरक्तो मनुजो विशोकः गन्ध से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है। जैसे एएण दुक्खोहपरंपरेण। एतेन दुःखौघपरम्परेण । कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही न लिप्पई भवमज्झे वि संतो न लिप्यते भवमध्येऽपि सन् वह संसार में रहकर अनेक दुःखों की परम्परा से जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ।। जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ।। लिप्त नहीं होता। ६१. जिहाए रसं गहणं वयंति जिहायाः रसं ग्रहणं वदन्ति रस रसना का ग्राह्य-विषय है। जो रस राग का तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । हेतु होता है, उसे मनोज्ञ कहा जाता है। जो द्वेष का तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु तं दोषहेतुममनोज्ञमाहुः हेतु होता है, उसे अमनोज्ञ कहा जाता है। जो समो य जो तेसु स वीयरागो।। समश्च यस्तेषु स वीतरागः।। मनोज्ञ और अमनोज्ञ रसों में समान रहता है, वह वीतराग होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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