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________________ उत्तरज्झयणाणि ४८२ अध्ययन २६ : सूत्र ५५-५६ ५५. वइगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं वारगुप्ततया भदन्त ! जीवः भंते ! वाग्-गुप्तता से जीव क्या प्राप्त करता है? जणयइ? किं जनयति? वइगुत्तयाए णं निध्वियारं वारगुप्ततया निर्विचारं वाग-गुप्तता से वह निर्विचार भाव को प्राप्त जणयइ। निव्वियारेणं जीवे जनयति। निर्विचारो जीवो होता है। निर्विचार जीव सर्वथा वाग्-गुप्त और वइगुत्ते अज्झप्पजोगज्झाणगुत्ते । वाग्गुप्तोऽध्यात्मयोगध्यानगुप्तश्चापि अध्यात्म-योग के साधन—चित्त की एकाग्रता आदि यावि भवइ।। भवति।। से युक्त हो जाता है। कायगुप्ततया भदन्त ! भंते ! काय-गुप्तता से जीव क्या प्राप्त करता है? जीवः किं जनयति? ५६.कायगुत्तयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासवनिरोहं करेइ।। कायगुप्ततया संवरं जन- काय-गुप्तता से वह संवर (अशुभ प्रवृत्ति के यति। संवरेण कायगुप्तः पुनः निरोध) को प्राप्त होता है। संवर के द्वारा कायिक पापाश्रवनिरोधं करोति।। स्थिरता को प्राप्त करने वाला जीव फिर पाप-कर्म के उपादान-हेतुओं (आश्रवों) का निरोध कर देता ५७.मणसमाहारणयाए णं भंते ! मनःसमाधारणेन भदन्त! भंते ! मन-समाधारणा-मन को आगम-कथित भावों जीवे किं जणयइ? जीवः किं जनयति? में भली-भांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है ? मणसमाहारणयाए णं एगग्गं मनःसमाधारणेन ऐकायं मन-समाधारणा से वह एकाग्रता को प्राप्त जणयइ, जणइत्ता नाणपज्जवे जनयति, जनयित्वा ज्ञानपर्यवान् होता है। एकाग्रता को प्राप्त होकर ज्ञान-पर्यवोंजणयइ, जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ जनयति, जनयित्वा सम्यक्त्वं विशोध- ज्ञान के विविध आयामों को प्राप्त होता है। ज्ञान-पर्यवों मिच्छत्तं च निज्जरेइ।। यति मिथ्यात्वञ्च निर्जरयति।। को प्राप्त कर सम्यक्-दर्शन को विशुद्ध और मिथ्यात्व को क्षीण करता है। ५८.वइसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे वाक्समाधारणेन भदन्त! भते! वाक्-समाधारणा-वाणी को स्वाध्याय में किं जणयइ? जीवः किं जनयति? भलीभांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है? वइसमाहारणयाए णं वइसाहार- वाक्समाधारणेन वाक्साधारण- वाक्-समाधारणा से वह वाणी के विषय-भूत णदंसणपज्जवे विसोहेइ, विसो- दर्शनपर्यवान् विशोधयति, विशोध्य दर्शन-पर्यवों-सम्यक्-दर्शन के विविध आयामों को हेत्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ सुलभबोधिकत्वं निवर्तयति, दुर्लभ- विशुद्ध करता है। वाणी के विषयभूत दर्शन-पर्यवों दुल्लहबोहियत्तं निज्जरेइ।। बोधिकत्वं निर्जरयति।। को विशुद्ध कर बोधि की सुलभता को प्राप्त होता है और बोधि की दुर्लभता को क्षीण करता है। ५६.कायसमाहारणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? कायसमाहारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ, विसोहेत्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, विसोहेत्ता चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ। तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाएइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ।। कायसमाधारणेन भदन्त! भंते! काय-समाधारणा-संयम-योगों में काय को भलीभांति लगाने से जीव क्या प्राप्त करता है? कायसमाधारणेन चरित्र- काय-समाधारणा से वह चरित्र-पर्यवों--चरित्र पर्यवान् विशोधयति, विशोध्य के विविध आयामों को विशुद्ध करता है। चरित्र-पर्यवों यथाख्यातचरित्रं विशोधयति, को विशुद्ध कर यथाख्यात चरित्र (वीतरागभाव) को विशोध्य चतुरः केवलिकर्माशान् प्राप्त करने योग्य विशुद्धि करता है। यथाख्यात क्षपयति। ततः पश्चात् सिध्यति, चरित्र को विशुद्ध कर केवलि-सत्क (केवली के 'बुज्झइ' मुच्यते, परिनिर्वाति, विद्यमान) चार कर्मों--वेदनीय, आयुष्य, नाम और सर्वदुःखानामन्तं करोति।। गोत्र को क्षीण करता है। उसके पश्चात् सिद्ध होता है, प्रशांत होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वृत्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है।६६ Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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