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________________ जीवाजीवविभक्ति ६३५ अध्ययन ३६ : श्लोक ७१-७७ टि० १५ निकले हुए कोनों वाला हीरा अप्रशस्त माना जाता है। गोमेज्जए---गोमेदक माणक की उपजातियों में गिना जाता सासग—हरित वर्ण वाला धातु। है। माणक केवल लाल रंग का होता है, पर इसमें लाल के पवाले—प्रवाल, विद्रुम, मूंगा। इसे नौ रत्नों में एक रत्न साथ पीत रंग का भी आभास होता है। किन्तु कौटलीय माना है, पर जंतु-विशेषज्ञों के अन्वेषण के आधार पर 'प्रवाल' अर्थशास्त्र के अनुसार यह 'वैडूर्य' का एक प्रकार है। मूलाचार (मूंगा) एक समुद्री वनस्पति-जीव है, जिसके कंकाल के टुकड़े में ‘गोमज्झग' (सं० गोमध्यक) शब्द है। इसका अर्थ कर्केतन करके आभूषण बनाए जाते हैं। मूंगों की अनेक जातियां हैं, मणि किया गया है। किन्तु 'गोमध्यक' शब्द मूल से कुछ दूर जिनकी शक्ल-सूरत में काफी भेद रहता है। उनके शरीर की हो गया, ऐसा प्रतीत होता है। भीतरी बनावट एक जैसी ही होती है और सबके ऊपरी हिस्से रुयगे-रुचक-राजवर्तक। पर इनका खुला हुआ मुख-छिद्र रहता है। मुख-छिद्र के चारों फलिहे—स्फटिक मणि। रयणपरिक्खा के अनुसार स्फटिक ओर अंगुलियों की शक्ल के पतले-पतले अङ्गक रहते हैं, जो मणि नेपाल, कश्मीर, चीन, कावेरी और यमुना तट पर तथा इनके स्पर्श-इन्द्रियों, हाथ तथा आत्मरक्षा के लिए डंक हैं। ये विंध्य पर्वत में उत्पन्न होता है। कौटलीय अर्थशास्त्र के अपने शरीर के चारों ओर कड़ी खोल की रचना करते हैं, अनुसार वह चार प्रकार का होता हैजिसके भीतर इनका नरम शरीर सुरक्षित रहता है। इनमें कुछ (१) शुद्धस्फटिक-अत्यन्त शुक्ल वर्ण वाला, नली के आकार के होते हैं तो कुछ पेड़-पौधों की तरह अपनी (२) मूलाटवर्ण-मक्खन निकाले हुए दही (तक्र) के टेढ़ी शाखाएं फैलाए रहते हैं। कुछ की बनावट मनुष्य के भेजे समान रंग वाला, जैसी होती है तो कुछ कुकुरमुत्ते की शक्ल के होते हैं। कुछ (३) शीतवृष्टि-चन्द्रकान्त-चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श देखने में पंखी से लगते हैं तो कुछ अंगुलियों से और इन्हीं में से पिघल जाने वाला और कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने लाखों अरबों वर्षों में निरन्तर संगठन (४) सूर्य की किरणों का स्पर्श होने पर आग उगलने से बड़ी-बड़ी चट्टानों तथा मीलों लम्बे प्रवाल-द्वीपों का रूप वाला। ग्रहण कर लिया है। संभव है इन द्वीपों से खुदाई के द्वारा प्राप्त लोहियक्खे-किनारे की ओर लाल रंग वाला और बीच होने के कारण इसे पृथ्वीकाय के भेदों में सम्मिलित किया गया में काला। इसका एक नाम 'लोहितक' भी मिलता है।" मूलाचार में इसका नाम 'लोहितांक' मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रवाल के पर्यायवाची नाम 'रक्त-कंद' मरगय—मरकत। श्री रत्नपरीक्षा ग्रन्थ में इसका विस्तृत और 'हेम-कंदल' दिए हैं।" उत्पत्ति स्थान के आधार पर इसके विवरण प्राप्त है। दो भेद किए जाते हैं-(१) आलकंदक-आलकंद नाम का मसारगल्ले–मसृण पासाण मणि (चिकनी धातु)। इसका म्लेच्छ देशों में समुद्र के किनारे एक स्थान है, वहां पर उत्पन्न वर्ण विद्रुम जैसा होता है। होने वाला और (२) वैवर्णिक यूनान देश के समीप विवर्ण मुयमोयग—मूलाचार में केवल 'मोय' शब्द है। वृत्तिकार नामक समुद्र का एक भाग है, वहां पर उत्पन्न होने वाला।' ने इसका अर्थ 'कदली वर्णाकार नील मणि' किया है।" मूंगा (प्रवाल) लाल तथा पद्म के समान रंग वाला होता है। सरपेन्टियर ने इसका अर्थ 'सर्प के विष से रक्षा करने वाला अंजण--समीरक। मणि विशेष' किया है।५।। १. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ : नष्टकोणं निरश्रि पापिवृत्तं सूर्यकान्तश्चेति मणयः। चाप्रशस्तम्। ११. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६। २. मूलाचार, ५॥१०, वृत्ति : सस्यकं हरितरूपम्। १२. मूलाचार, ५।११। ३. समुद्र के जीव-जन्तु, पृ० १४। १३. सिरि रयणपरिक्खा , पयरण ३८-४२: ४. अभिधान चिन्तामणि, ४१३२ : रक्तांकोरक्तकंदश्च, प्रवाल हेमकंदलः। अवणिंद-मलय-पव्यय-बब्बरदेसेसु उयहितीरे य। ५. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ : प्रवालकमालकन्दकं वैवर्णिक च गरुडस्स य कण्ठ उरे हवंति मरगय-महामणिणो।। रक्तं पद्मरागं च....। गरुडोदगार पढमा, कीरउठी वीय तइअ मुंगडनी। ६. सिरि रयणपरिक्खा, पयरण ५३ : वामवई अ चउत्थी, धूलि मरीई य पणजाई।। सिरिनाय कुलपरे वम देसे तह जम्मल नई मज्झे। गरुडोदगार रम्मा, नीला अइकोमला य विसहरणा। गोमय इंदगोवं, सुसणेहं पंडुरं पीयं ।। कीडउठि सुह सुहमच्चा, सुनइड कीडस्स पंखसमा ।। ७. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६। मुंगडनी सु सणेहा नील हरिय कीरकंठ सारिच्छा। ८. मूलाचार, ५१११, वृत्ति। कढिया अमला हरिया, वासवई होई बिसहरणा।। ६. सिरि रयणपरिक्खा, पयरण ५४ : धृलि मराइ गरुया, रुक्खा घणनीलकच्च सारिच्छा। नयवालेक समीरे, चीणे काबेरी जउण नइकूले। मुल्ले वीरुविसोवा दुहट्ट वह पंच दुन्निकमे ।। विंझनगे उप्पज्जइ, फलिहं अइनिम्मलं सेयं ।। १४. मूलाचार, ५११२, वृत्ति। १०. कौटलीय अर्थशास्त्र, २।११।२६ : शुद्धस्फटिकः मलाटवर्णः शीतवृष्टिः १५. The Uttaradhyayan Sutra, p. 402. हो। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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