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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २ : श्लोक ४०-४६
(२०) प्रज्ञा परीषह निश्चय ही मैंने पूर्वकाल में अज्ञानरूप-फल देने वाले कर्म किए हैं। उन्हीं के कारण मैं किसी के कुछ पूछे जाने पर भी कुछ नहीं जानता-उत्तर देना नहीं जानता।२।।
(२०) पण्णापरीसहे ४०.से नूणं मए पुवं
कम्माणाणफला कडा। जेणाहं नाभिजाणामि
पुट्ठो केणइ कण्हुई।। ४१.अह पच्छा उइज्जति
कम्माणाणफला कडा। एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ।।
(२१) अण्णाणपरीसहे ४२.निरट्ठगम्मि विरओ मेहुणाओ सुसंवुडो। जो सक्खं नाभिजाणामि
धम्म कल्लाण पावगं ।। ४३.तवोवहाणमादाय
पडिम पडिवज्जओ। एवं पि विहरओ मे छाउमं न नियट्टई ।।
(२०) प्रज्ञापरीषहः अथ नूनं मया पूर्व कर्माण्यज्ञानफलानि कृतानि। येनाहं नाभिजानामि पृष्टः केनचित् क्वचित् ।। अथपश्चादुदीर्यन्ते कर्माण्यज्ञानफलानि कृतानि। एवमाश्वासयात्मानं ज्ञात्वा कर्मविपाककम्।। (२१) अज्ञानपरीषहः निरर्थके विरतः मैथुनात्सुसंवृतः। यः साक्षान्नाभिजानामि धर्म कल्याणपापकम्।।
“पहले किए हुए अज्ञानरूप-फल देने वाले कर्म पकने के पश्चात् उदय में आते हैं।७३- इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि आत्मा को आश्वासन दे।
(२१) अज्ञान परीषह "मैं मैथुन से निवृत्त हुआ", इन्द्रिय और मन का मैंने संवरण किया-यह सब निरर्थक है। क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी—यह मैं साक्षात् नहीं जानता।"
तप-उपधानमादाय प्रतिमा प्रतिपद्यमानस्य। एवमपि विहरतो मे छद्म न निवर्तते।।
तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूं, प्रतिमा का पालन करता हूं-इस प्रकार विशेष चर्या से विहरण करने पर भी मेरा छद्म (ज्ञान का आवरण) निवर्तित नहीं हो रहा है-ऐसा चिंतन न करे।
(२२) दर्शन परीषह "निश्चय ही परलोक नहीं है, तपस्वी की ऋद्धि" भी नहीं है अथवा मैं ठगा गया हूं"- भिक्षु ऐसा चिन्तन न करे।
(२२) दसणपरीसहे ४४.नत्थि नूर्ण परे लोए
इड्ढी वावि तवस्सिणो। अदुवा वंचिओ मि त्ति
इइ भिक्खु न चिंतए।। ४५.अभू जिणा अत्थि जिणा
अदुवावि भविस्सई। मुसं ते एवमाहंसु
इइ भिक्खू न चिंतए।। ४६.एए परीसहा सव्वे
कासवेण पवेइया। जे भिक्खू न विहन्नेज्जा पुट्ठो केणइ कण्हुई।।
(२२) दर्शनपरीषहः नास्ति नूनं परो लोकः ऋद्धिर्वापि तपस्विनः। अथवा वञ्चितोस्मि इति इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्।। अभूवन् जिनाः सन्ति जिनाः अथवा अपि भविष्यन्ति। मृषा ते एवमाहुः इति भिक्षुर्न चिन्तयेत् ।। एते परीषहाः सर्वे काश्यपेन प्रवेदिताः। यान् भिक्षुर्न विहन्येत स्पृष्टः केनापि क्वचित् ।।
"जिन हुए थे, जिन हैं और जिन होंगे-ऐसा जो कहते हैं वे झूठ बोलते हैं"-भिक्षु ऐसा चिंतन न करे।२
इन सभी परीषहों का काश्यप-गोत्रीय भगवान् महावीर ने प्ररूपण किया है। इन्हें जानकर, इनमें से किसी के द्वारा कहीं भी स्पृष्ट होने पर मुनि इनसे पराजित (अभिभूत) न हो।
–त्ति बेमि।
इति ब्रवीमि
--ऐसा मैं कहता हूं।
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