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________________ द्रुमपत्रक २७. अरई गंडं विसूया आयंका विविहा फुसंति ते। विवss विद्धंसह ते सरीरयं समयं गोयम ! मा पमायए ।। २८. वोछिंद सिणेहमप्पणी कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम ! मा पमायए ।। २६. चिच्चाण धणं च भारियं पव्वइओ हि सि अणगारियं मा तं पुणो वि आइए समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३०. अवउज्झिय मित्तबंधर्व विउलं चैव धणोहसंचयं । मा तं बिइयं गवेसए समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३१. न हु जिणे अज्ज दिस्सई बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे समयं गोयम ! मा पमायए ।। । ३२. अवसोहिय कंटगापहं ओइण्णो सि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३३. अबले जह भारवाहए मा मग्गे विसमे ऽवगाहिया । पच्छा पच्छाणुतावए समयं गोयम ! मा पमायए ।। २४. तिष्णो हु सि अण्णवं महं किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ । अभितुर पारं गमित्तए समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३५. अकलेवरसेणिमुस्सिया सिद्धिं गोयम ! लोयं गच्छसि । खेमं च सिवं अणुत्तरं समयं गोयम ! मा पमायए ।। Jain Education International १८५ अरतिर्गण्ड विसूचिका आतङ्का विविधाः स्पृशन्ति ते । विपतति विश्वस्यते ते शरीर समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। व्युच्छिन्धि स्नेहमात्मनः कुमुई शारदिकमिव पानीयम्। तत्सर्वस्नेहवर्जितः समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। त्यक्त्वा धनं च भार्यां प्रवजितोस्यनगारिताम् । मायान्तं पुनरप्यापिय समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अपोज्झय मित्रबान्धवं विपुलं चैव धनौघसंचयम् । मा तद् द्वितीयं गवेषय समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। न खलु जिनोऽद्य दृश्यते बहुमतो दृश्यते मार्गदेशिकः । सम्प्रति नैर्यातृके पथि समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अवशोध्य कंटकपथं अवतीर्णोऽसि पथं महान्तं । गच्छसि मार्गं विशोध्य समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अबलो यथा भारवाहकः मा मार्ग विषममवगाह्य । पश्चात्पश्चादनुतापकः समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। तीर्णः खलु असि अर्णवं महान्तं किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः । अभित्वरस्व पारं गन्तुं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अक्लेयर श्रेणिमुच्छ्रित्य सिद्धिं गौतम ! लोकं गच्छसि । क्षेमं व शिवमनुतरं समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। अध्ययन १० : श्लोक २७-३५ १७ पित्त रोग, फोड़ा - फुन्सी, हैजा और विविध प्रकार के शीघ्रघाती रोग शरीर का स्पर्श करते हैं जिनसे यह शरीर शक्तिहीन और विनष्ट होता है, इसलिए है गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। जिस प्रकार शरद ऋतु का कुमुद (रक्त कमल ) जल में लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार तू अपने स्नेह का विच्छेद कर निर्लिप्त बन हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। ६ 1 गाय आदि धन और पत्नी का त्याग कर तू अनगार-वृत्ति के लिए घर से निकला है। वमन किए हुए काम-भोगों को फिर से मत पी । हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । मित्र, बान्धव और विपुल धन राशि को छोड़कर फिर से उनकी गवेषणा मत कर। हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। " आज जिन नहीं दीख रहे हैं, जो मार्ग-दर्शक हैं वे एकमत नहीं हैं” अगली पीढ़ियों को इस कठिनाई का अनुभव होगा, किन्तु अभी मेरी उपस्थिति में तुझे पार ले जाने वाला पथ प्राप्त है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर कांटों से भरे मार्ग को छोड़ कर तू विशाल पथ पर चला आया है।" दृढ़ निश्चय के साथ उसी मार्ग पर चल । हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। बलहीन भार वाहक की भांति तू विषम मार्ग में मत चले जाना। विषम मार्ग में जाने वाले को पछतावा होता है, इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर।२३ तू महान् समुद्र को तैर गया, अब तीर के निकट पहुंच कर क्यों खड़ा है ?* उसके पार जाने के लिए जल्दी कर हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर २५ हे गौतम! तू क्षपक- श्रेणी पर आरूढ़ होकर उस सिद्धिलोक को प्राप्त होगा, जो क्षेम, शिव और अनुत्तर है । इसलिए हे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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