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________________ उत्तरज्झयणाणि नेमिचद्राचार्य भी इन शब्दों की भोजन विषयक व्याख्या कर वैकल्पिक रूप में सामान्य विषयक व्याख्या और निरवद्य व्याख्या— दोनों करते हैं । यत्र-तत्र उदाहरणों में अन्तर है ।' २४ अध्ययन १ : श्लोक ३७-४० टि. ५६-६२ वाले आचार्य को शिष्य पापदृष्टि मानता है। वह सोचता है--ये पापी हैं। इनके मन में मेरे प्रति करुणा नहीं है। ये क्रूर हैं। ये कारावास के अधिकारी की भांति मुझे दंडित करते हैं। २. खड्डुगा मे चवेडा मे—इस पाठ के आधार पर इसका अर्थ है— मेरे लिए तो केवल ठोकरें खाना, चपेटें खाना, गाली सहना और मार खाना ही भाग्य में है-ऐसा सोचकर शिष्य कल्याण के लिए अनुशासन करने वाले आचार्य को भी पापदृष्टि वाला मानता है ।" ३. आचार्य वाणी के द्वारा शिष्य पर अनुशासन करते हैं। पापदृष्टि शिष्य उसको ठोकरें और चपेटों के समान मानता है। वह उनकी हितकारी वाणी को आक्रोश और प्रहार के समान मानता है। डॉ. हर्मन जेकोबी के अनुसार इस पद्य का अर्थ हैमुनि ऐसे आहार को वर्जनीय माने जो सुकृत, सुपक्व आदि हो । यह अर्थ प्रसंगोपात्त नहीं है, क्योंकि प्रस्तुत श्लोक में यह विवेक दिया गया है कि मुनि आहार के सम्बन्ध में क्या न बोले । प्रस्तुत श्लोक दशवैकालिक ७ 198 में भी आया है। इस सूत्र के प्राचीन चूर्णिकार अगस्त्यसिंह स्थविर इस श्लोक में प्रयुक्त शब्दों को अनेक विशिष्ट क्रियाओं के प्रशंसक वचन मानते हैं। दूसरे चूर्णिकार जिनदास और वृत्तिकार हरिभद्रसूरी इन शब्दों के उदाहरण भोजन विषयक भी देते हैं और सामान्य भी । विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं ७।४१ का टिप्पण | ५९. श्लोक ३७ अविनीत व्यक्ति दुष्ट प्रकृति का होता है। गुरु के अनुशासन से वह प्रसन्न नहीं होता। गुरु उसके व्यवहार से खिन्न हो जाते हैं। ऐसी दुष्ट प्रकृति वाले अविनीत शिष्य की तुलना दुष्ट घोड़े से की गई है। आचार्य भिक्षु ने अविनीत की इस मनोवृत्ति का मार्मिक चित्रण किया है । गलियार गधो घोडो अविनीत ते, कूट्या बिना आगे न चाले रे ज्यूं अविनीत ने काम भोलावियां, कह्या नीठ नीठ पार घाले रे।। गलियार गधो घोडो मोल ले, खाडेती घणो दुःख पावे रे । ज्यूं अविनीत ने दिख्या दिया पर्छ, पग पग गुरु पिछतावे रे।। ६०. श्लोक ३८ प्रस्तुत श्लोक के दो प्रकार के पाठों के आधार पर चूर्णिकार ने तीन अर्थ किए हैं— १. सुखबोधा, पत्र ६ । २. जेकोबी, जैन सूत्राज पृष्ठ ६ Amonk Should avoid as unallowed such food as is well dressed, or well cooked, or well cut........... I ३. विनीत अविनीत की चौपई, ढाल २1११,१२ । ४. उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ. ४१ : खड्डुगाहिं चवेडाहिं अक्कोसेहिं बहेहि या एवमादि भिक्खुशासने प्रकारे तमाचार्य कल्लाणमणुसासेन्तं कल्यमानयतीति कल्लाणं, इह परलोकं (कहितं) इत्यर्थः तथापि तत् कल्याणमनुशासत् कल्लाणं वा तमाचार्यमनुशासनं पावदिट्ठित्ति मण्णति, अयं हि पापो मां हंति, निर्घृणत्वात् क्रौर्य्यत्वाच्च चारपालकवद् बाधयति । अपरकल्पः खड्डुगा मे चवेडा मे सो उ गम्मो इति, एस आयरिओ अकोविओ एवं चवेउ Jain Education International बृहद्वृत्ति में चूर्णि के प्रथम दो अर्थ उपलब्ध हैं ।" सुखबोधा वृत्ति में तीसरा अर्थ मान्य है। यह अर्थ मुनि की जीवन शैली के अनुकूल है। इसीलिए हमने इसे स्वीकार किया है। जर्मन विद्वान् डॉ. हरमन जेकोबी और जार्ल सरपेन्टियर ने प्रस्तुत श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया है- (कुशिष्य सोचता है) मुझे ठोकर, चपेटा आक्रोश और मारपीट प्राप्त होती है। वह शिष्य अपने पर हितकारी अनुशासन करने वाले गुरु को क्रूर और चंड मानता है। ६१. श्लोक ३९ प्रस्तुत श्लोक में 'भाया' (भ्राता) और 'कल्लाणं' (कल्याण) के स्थान पर विभक्ति-विहीन 'भाय' और 'कल्ला' का प्रयोग हुआ है । सासं—प्राकृत व्याकरण के अनुसार यह 'शास्यमानं' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। सरपेन्टियर ने ' शास्यमानं' को असंभव मानते हुए इसका रूप 'शास्य' ही होना चाहिए, ऐसा कहा है। ६२. आचार्य का उपघात करने वाला न हो बुद्धोवधाई न सिया) १. खड्डुगाहिं चवेडाहि.. ..इस पाठ के आधार पर इसका अर्थ है---ठोकरों, चपेटों, कटुवचनों तथा दंड आदि है या उसमें श्रद्धा करता है। के आघातों से शिष्य - हित के लिए कल्याणकारी अनुशासन करने बुद्ध या आचार्य की उपघात के तीन प्रकार हैं १. ज्ञान - उपघात - यह आचार्य अल्प श्रुत है या ज्ञान का गोपन करता है। २. दर्शन - उपघात- यह आचार्य उन्मार्ग का प्ररूपण करता ५. ६. ७. ८. ६. ३. चरित्र - उपघात -- यह आचार्य पार्श्वस्थ या कुशील है। उच्चावएहिं मं आउस्सेहिं आउस्सति एवमसी कल्लाणमणुसाससंतं पावदिट्ठित्ति मन्नति । अपर आदेशः वाग्भिरप्यसावनुशास्यमानः मन्यते तां वाचं 'खड्डुगा में चवेडा मे' तथा हितामपि वाचं अक्कोसतित्ति, सासति वधं वा । बृहद्वृत्ति, पत्र ६२ । सुखबोधा, पत्र १३ । (क) जैन सूत्राज, पृष्ठ ६ । (ख) दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ठ २८१, २८२ । बृहद्वृत्ति, पत्र ६२ । दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ठ २८२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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