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________________ विनयश्रुत २३ अध्ययन १ : श्लोक ३६ टि०५६-५८ मुख और नासिका के द्वारा जो वायु निकलती है, उसे प्राण मण्डली-भोजी साधु हैं उनका यह कर्तव्य है कि वे अपने कहते हैं। लोक में 'प्राण' का यही अर्थ रूढ़ है। प्राण द्वीन्द्रिय सहधर्मी साधुओं को निमंत्रित कर उनके साथ भोजन करें, आदि में ही होता है। एकेन्द्रिय जीवों में वह नहीं होता। अतः एकाकी न खाएं। इस आशय का स्पष्ट उल्लेख दशवैकालिक 'अल्पबीज' का निर्देश सप्रयोजन है। ५1१६५ में मिलता है। चूर्णिकार का अभिमत है कि यहां अर्थ की दृष्टि से दोनों टीकाकार प्रधानतः इसी अर्थ को मान्य करते हैं 'अप्पाणे' पाठ होना चाहिए, किन्तु उससे श्लोक-रचना ठीक और दशवैकालिक ५११६५ का श्लोक उद्धृत करते हैं। शान्त्याचार्य नहीं बैठती, इस दृष्टि से 'अप्पाणे' के स्थान में 'अप्पपाणे' का ने विकल्प में इसका अर्थ-'सरस-विरस आहार में अनासक्त प्रयोग किया गया है। होकर'--भी किया है। टीकाकार की दृष्टि में भी अल्प शब्द अभाववाची है। चूर्णि में बताया गया है कि अकेला भोजन करे तो वह इससे भी चूर्णिकार का मत समर्थित होता है। समतापूर्वक करे और मण्डली में भोजन करे तो साधर्मिकों को अप्पबीयंमि-इसका शब्दार्थ है-बीज रहित स्थान में। निमंत्रित कर भोजन करे।" उपलक्षण से इसका अर्थ समस्त स्थावर जन्तु रहित स्थान में जयं अपरिसाडियं—यह पद दशवकालिक ५१६ में होता है। बीज सहित स्थान वर्जनीय है तो हरियाली सहित ज्यों-का-त्यों आया है। 'अपरिसाडियं का अर्थ है-भूमि पर न स्थान अपने आप वर्जनीय हो जाता है। गिराता हुआ। डॉ. जेकोबी ने इसका अर्थ-वस्त्ररहित-नग्न ५६. (पडिच्छन्नंमि संवुडे) किया है। यह समीचीन नहीं है। पडिच्छन्नमि-ऊपर से ढके हुए उपाश्रय में। ५८. श्लोक ३६ यहां प्रतिपाद्य यह है कि साधु खुले आकाश में भोजन न बृहद्वृत्ति में प्रस्तुत श्लोकगत शब्दों की मुख्य व्याख्या करे। क्योंकि वहां ऊपर से गिरने वाले सूक्ष्म जीवों का उपद्रव भोजन विषयक है और वैकल्पिक रूप में दो प्रतिपत्तियां हैंहो सकता है। अतः ऐसे स्थान में आहार करे जो ऊपर से छाया १. 'सुपक्च' शब्द को छोड़कर शेष सभी शब्दों की हुआ हो। सामान्य विषयक व्याख्या है, जैसे-इसने सुच्छिन्न किया है संवुडे-पार्श्व में भित्ति आदि से संवृत उपाश्रय में। न्यग्रोध वृक्ष आदि, इसने अच्छा बनाया है प्रासाद, कूप चूर्णिकार ने 'संवुडे' को साधु का विशेषण मानकर इसका आदि-आदि। अर्थ संयत या सर्वेन्द्रियगुप्त किया है। शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र २. 'सुकृत' आदि शब्दों का निरवद्य प्रयोग भी है, ने इसे स्थान का विशेषण माना है। अनुवाद का आधार यह जैसे-इसने सुकृत किया धर्मध्यान आदि। इसका सुपक्व है दूसरा अर्थ रहा है। शान्त्याचार्य ने वैकल्पिक रूप में 'संवुडे' को वचन-विज्ञान आदि। इसने सुच्छिन्न किया है स्नेह आदि। साधु का विशेषण भी माना है। इसने अकल्याण की शांति के लिए उपकरणों को सुहृतदेखें-दशवैकालिक ५।११८३ का टिप्पण। एकत्रित किया है। इसने सुहृत-अच्छी तरह से मार डाला है ५७. (समयं.....जयं अपरिसाडिय) कर्म-शत्रुओं को। यह सुमृत है-इसने पंडित-मरण से मृत्यु समयं-इसका अर्थ है-साथ में। इस शब्द के द्वारा प्राप्त की है। यह साध्वाचार के विषय में सुनिष्ठित है। सुलष्ट गच्छवासी साधुओं की सामाचारी का निर्देश हुआ है। जो है-अच्छा है इसका तपोनुष्ठान आदि।३ १. बृहदवृत्ति, पत्र ६० : ननु चाल्पप्राण इत्युक्ते अल्पबीज इति गतार्थ, (ख) सुखबोधा, पत्र १२। बीजानामपि प्राणत्वाद् उच्यते, मुखनासिकाभ्यां या निर्गच्छति वायुः स ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१ : संवृतो वा सकलाश्रयविरमणात् । एवेहलोक रूढितः प्राणो गृह्यते। अयं च द्वीन्द्रियादीनामेव संभवति, न १०. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१ : 'समकम्' अन्यैः सह, न त्वेकाक्येव रसलम्पटतया बीजायेकेन्द्रियाणामिति । समूहासहिष्णुतया वा, अत्राह च२. उत्तराध्ययन चूर्णि, ४० : अप्पाणेत्ति वत्तब्चे बंधाणुलोमे अप्पपाणे। साहवो तो चियत्तेणं, निमंतेज्ज जहक्कम । ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६० : अल्पा-अविद्यमानाः प्राणा:-प्राणिनो जई तत्थ केइ इच्छेज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए।। यस्मिस्तदल्पप्राणम्। (दशवै०५१६५) ४. वही, पत्र ६० : अल्पानि-अविद्यमानानि बीजानि शाल्यादीनि त्ति, गच्छस्थितसामाचारी चेयं गच्छस्यैवं जिनकाल्पिकादीनामपि यस्मिस्तदल्पबीजं तस्मिन्, उपलक्षणत्वाच्चास्य सकलैकेन्द्रियविरहिते। मूलत्वख्यापनायोक्ता। ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४०: बीजग्रहणात् तद्भेदाः यदि वा बीजान्यपि (ख) सुखबोधा, पत्र १२। वर्जयन्ति, किमुत हरितत्रसादयः? ११. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४० : समतं नाम सम्यग् रागद्वेषवियुतः एकाकी ६. सुखबोथा, पत्र १२ : प्रतिच्छन्ने- उपरिप्रावरणाऽन्विते, अन्यथा भुंक्ते, यस्तु मंडलीए भुंक्ते सोऽविसमगं संजएहि भुंजेज्ज, सहान्यैः संपातिमसत्त्वसंपातसंभवात्। साधुभिरिति, अहवा समयं जहारातिणिओ लंबणे गेण्हई ऽण्णे वा, तथा ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४० : संवुडो नाम सव्विंदियगुत्तो। अविक्कितवदनो गेण्हति। ८. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०,६१ : 'संवृते' पार्श्वतः कटकुट्यादिना संकटद्वारे, १२. डॉ. जेकोबी, Jaina Sutras, P.61 अटव्यां कुडंगादिषु वा। १३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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