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उत्तरज्झयणाणि
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अध्ययन २२ : श्लोक ४७-४६
वह मन, वचन और काया से गुप्त, जितेन्द्रिय तथा दृढ़व्रती हो गया। उसने फिर आजीवन निश्चल भाव से श्रामण्य का पालन किया।
४७.मणगुत्तो वयगुत्तो
कायगुत्तो जिइंदिओ। सामण्णं निच्चलं फासे
जावज्जीवं दढव्वओ।। ४८.उग्गं तवं चरित्ताणं
जाया दोण्णि वि केवली। सव्वं कम्म खवित्ताणं
सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। ४६.एवं करेंति संबुद्धा
पंडिया पवियक्खणा। विणियटॅति भोगेसु जहा सो पुरिसोत्तमो।।
मनोगुप्तो वचोगुप्तः कायगुप्तो जितेन्द्रियः। श्रामण्यं निश्चलमस्पाक्षीत् यावज्जीवं दृढव्रतः ।। उग्रं तपश्चरित्वा जातौ द्वावपि केवलिनौ। सर्वं कर्म क्षपयित्वा सिद्धिं प्राप्तावनुत्तराम् ।। एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः पण्डिताः प्रविचक्षणाः। विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः यथा स पुरुषोत्तमः ।।
उग्र-तप का आचरण कर तथा सब कर्मों को खपा. वे दोनों (राजीमती और रथनेमि) अनुत्तर सिद्ध को प्राप्त हुए।
सम्बुद्ध, पण्डित और प्रविचक्षण पुरुष ऐसा ही करते हैं वे भोगों से वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे कि पुरुषोत्तम रथनेमि हुआ।
—त्ति बेमि।
-इति ब्रवीमि।
-ऐसा मैं कहता हूं।
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