SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रथनेमीय ३६१ अध्ययन २२ : श्लोक ३६-४६ रथनेमि को संयम में उत्साहहीन और भोगों से पराजित देख कर राजीमती संभ्रान्त नहीं हुई। उसने वहीं अपने शरीर को वस्त्रों से ढंक लिया। नियम और व्रत में सुस्थित राजवर-कन्या राजीमती ने जाति, कुल और शील की रक्षा करते हुए रथनेमि से कहा यदि तू रूप में वैश्रमण है, लालित्य से नलकूबर है और तो क्या, यदि तू साक्षात् इन्द्र है तो भी मैं तुझे नहीं चाहती। (अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प ज्वलित, विकराल, धूमशिख-अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं परन्तु (जीने के लिए) वमन किए हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते।) हे यशःमामिन् !२२ धिक्कार है तुझे। जो तू भोगी-जीवन के लिए वमी हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तेरा मरना श्रेय है। ३६. दठूण रहनेमिं तं भग्गुज्जोयपराइयं। राईमई असंभंता अप्पाणं संवरे तहिं।। ४०.अह सा रायवरकन्ना सुट्ठिया नियमव्वए। जाई कुलं च सीलं च रक्खमाणी तयं वए।। ४१. जइ सि रूवेण वेसमणो ललिएण नलकूबरो। तहा वि ते न इच्छामि जह सि सक्खं पुरंदरो।। (पक्खंदे जलियं जोई धूमकेउं दुरासयं। नेच्छंति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे।।) ४२.धिरत्थु ते जसोकामी ! जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे।। ४३. अहं च भोयरायस्स तं च सि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो संजमं निहुओ चर।। ४४.जइ तं काहिसि भावं जा जा दिच्छसि नारिओ। वायाविद्धो ब्व हढो अट्ठिअप्पा भविस्ससि ।। ४५.गोवालो भंडवालो वा जहा तद्दव्वऽणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि सामण्णस्स भविस्ससि ।। (कोहं माणं निगिण्हित्ता मायं लोभं च सव्वसो। इंदियाई वसे काउं अप्पाणं उवसंहरे।।) ४६.तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं। अंकुसेण जहा नागो धम्मे संपडिवाइओ।। दृष्ट्वा रथनेमिं तं भग्नोद्योगपराजितम्। राजीमत्यसम्भ्रान्ता आत्मानं समवारीत् तत्र।। अथ सा राजवरकन्या सुस्थिता नियमव्रते। जातिं कुलं च शीलं च रक्षन्ती तकमवदत् ।। यद्यसि रूपेण वैश्रमणः ललितेन नलकूबरः। तथापि त्वां नेच्छामि यद्यसि साक्षात् पुरन्दरः ।। (प्रस्कन्दन्ति ज्वलितं ज्योतिष धूमकेतुं दुरासदम्। नेच्छन्ति वान्तकं भोक्तुं कुले जाता अगन्धने।।) धिगस्तु त्वां यशस्कामिन् ! यस्त्वं जीवितकारणात्। वान्तमिच्छस्यापातुं श्रेयस्ते मरणं भवेत् ।। अहं च भोजराजस्य त्वं चाऽसि अन्धकवृष्णेः। मा कुले गन्धनौ भूव संयमं निभृतश्चर।। यदि त्वं करिष्यसि भावं या या द्रक्ष्यसि नारी:। वाताविद्धः इव हटः। अस्थितात्मा भविष्यसि ।। गोपालो भाण्डपालो वा यथा तद् द्रव्यानीश्वरः। एवमनीश्वरस्त्वमपि श्रामण्यस्य भविष्यति।। (क्रोधं मानं निगृह्य मायां लोभं च सर्वशः। इन्द्रियाणि वशीकृत्य आत्मानमुपसंहरेः ।।) तस्याः स वचनं श्रुत्वा संयतायाः सुभाषितम्। अंकुशेन यथा नागो धर्मे सम्प्रतिपादितः ।। मैं भोज-राज की पुत्री हूं और तू अन्धक-वृष्णि का पुत्र। हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न हों। तू निभृत हो-स्थिर मन हो-संयम का पालन कर। यदि तू स्त्रियों को देख उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा तो वायु से आहत हट (जलीय वनस्पति—काई)२६ की तरह अस्थितात्मा हो जाएगा। जैसे गोपाल और भाण्डपाल गायों और किराने के स्वामी नहीं होते, इसी प्रकार तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा। (तू क्रोध और मान का निग्रह कर। माया और लोभ पर सब प्रकार से विजय पा। इन्द्रियों को अपने अधीन बना। अपने शरीर का उपसंहार कर उसे अनाचार से निवृत्त कर)। संयमिनी के इन सुभाषित वचनों को सुनकर, रथनेमि धर्म में वैसे ही स्थिर हो गया, जैसे अंकुश से हाथी होता है। Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy