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टिप्पण
१. सोरियपुर (सोरियपुरंमि)
यह कुशावर्त जनपद की राजधानी थी।
विशेष विवरण के लिए देखें परिशिष्ट- १, भौगोलिक
अध्ययन २२ : रथनेमीय
परिचय ।
२. राज- लक्षणों से युक्त (रायलक्खणसं जुए )
सामुद्रिकशास्त्र के अनुसार राजा के लक्षण चक्र, स्वस्तिक, अंकुश आदि होते हैं और योग्यता की दृष्टि से त्याग, सत्य, शौर्य आदि गुण।' तीसरे श्लोक की वृत्ति में राजा के लक्षण छत्र, चामर, सिंहासन आदि राज-चिन्ह बताए गए हैं। ३. स्वर-लक्षणो... ( लक्खणस्सर...)
शान्त्याचार्य में सौन्दर्य, गाम्भीर्य आदि को स्वर - लक्षण माना है। आर्ष प्राकृत के अनुसार यहां 'सर' और 'लक्खण' का व्यत्यय है । 'सरलक्खण' के स्थान पर 'लक्खणस्सर' ऐसा प्रयोग है।"
४. एक हजार आठ शुभ लक्षणों का धारक (अट्ठसहस्स– लक्खणधरो )
शरीर के साथ-साथ उत्पन्न होने वाले छत्र, चक्र, अंकुश आदि रेखा-जनित आकारों को 'लक्षण' कहा जाता है।" साधारण मनुष्यों के शरीर में ३२, बलदेव तथा वासुदेव के १०८, चक्रवर्ती और तीर्थंकर के १००८ लक्षण होते हैं। ५. वज्रसंहनन (वजरिसहसंघयणों)
संहनन का अर्थ है- अस्थि बन्धन— हड्डियों के बन्धन । इसके छह प्रकार हैं
(१) वज्रऋषभ - नाराच। (२) ऋषभ नाराच। (३) नाराच । (६) असंप्राप्तसृपाटिका । " जिसमें सन्धि की दोनों हड्डियां आप में आंटी लगाए हुए हों, उन पर तीसरी हड्डी का वेष्टन हो, चौथी हड्डी की कील उन तीनों को भेद कर रही हुई हो, ऐसे सुदृढ़तम अस्थि-बन्धन
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(४) अर्ध नाराच। (५) कीलिका ।
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८६ राजेव राजा तस्य लक्षणानि - चक्रस्वस्तिकाडूकुशादीनि त्यागसत्यशीर्यादीनि वा ।
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२. वही, पत्र ४८६ राजलक्षणानि -छत्रचामरसिंहासनादीन्यपि गृह्यन्ते । ३. वही, पत्र ४८६ लक्षणानि सौन्दर्यगाम्भीर्यादीनि ।
४. वही, पत्र ४८६ ।
५. प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति, पत्र ४१० जं सरीरेण सह समुप्पन्नं तं लक्खणं ।
६. वही, वृत्ति पत्र ४१०-४१११
का नाम 'वज्रऋषभ नाराच संहनन' है 1
६. समचतुरस्र संस्थान वाला (समचउरंसो)
संस्थान का अर्थ है- शरीर की आकृति । उसके छह प्रकार हैं
(१) समचतुरस्र । (२) न्यग्रोधपरिमण्डल ।
(४) वामन । (५) कुब्ज । (६) हुण्ड
(३) स्वाति (सादि)।
पालथी मार कर बैठे हुए व्यक्ति के चारों कोण सम होते हैं, वह 'समचतुरस्र संस्थान' है।
७. चमकती हुई बिजली जैसी प्रभा वाली थी (विज्जुसोया
मणिप्पभा)
शायाचार्य ने 'विद्युत सौदामिनी' का अर्थ 'चमकती हुई बिजली' अथवा 'अग्नि व बिजली' किया है। मतान्तर के अनुसार सौदामिनी का अर्थ 'प्रधानमणि' होता है। ८. पिता उग्रसेन ( जणओ)
राजीमती के पिता नाम उग्रसेन था ।" उत्तरपुराण के अनुसार उग्रसेन का वंश इस प्रकार है"
अंधकवृष्टि (वृष्णि)
शूरसेन
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शूरवीर
नरवृष्टि (वृष्णि)
उग्रसेन, देवसेन, महासेन समुद्रविजय आदि दश पुत्र (देखिए श्लोक ११ का टिप्पण) और दो पुत्रियां कुन्ती माद्री ।
विष्णुपुराण के अनुसार उग्रसेन के पुत्र और ४ पुत्रियां थी।” पुत्रों का नाम कंश, न्यग्रोध, सुनाम, आनकाह, शंकु, सभूमि, राष्ट्रपाल, बुखतुष्टि और सुनुष्टिमान्।
७. पण्णवणा, २३ । ४६ ।
८.
वही, २३।४७ ।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० विज्जुसोयामणिप्पह त्ति विशेषेण द्योततेदीप्यत इति विद्युत् सा चासौ सौदामिनी च विद्युत्सौदामिनी, अथवा विद्युदग्निः सौदामिनी च तडित्, अन्ये तु सौदामिनी प्रधानमणिरित्याहुः । १०. वहीं, पत्र ४६० जनकस्तस्याः- राजीमत्या उग्रसेन इत्युक्तम् । ११. उत्तरपुराण, ७०।६३-१००।
१२. विष्णुपुराण, ४।१४।२०-२१।
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