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________________ उत्तरझयणाणि ३६४ पुत्रियों का नाम — कंसा, कंसवती, सुतनु और राष्ट्रपालिका । 'सुतनु' राजीमती का दूसरा नाम है। देखिए - श्लोक सैंतीस का टिप्पण । ९. सर्व औषधियों के जल से (सब्बो सहीहि ) शान्त्याचार्य ने स्नान में होने वाली प्रयुक्त कुछ बतलाई हैं – जया, विजया, ऋद्धि, वृद्धि आदि ।' १०. कौतुक और मंगल किए गए (कयको उयमंगलो) विवाह के पूर्व वर के ललाट से मूशल का स्पर्श करवाना आदि कार्य 'कौतुक' कहलाते हैं और दही, अक्षत, दूब, चन्दन आदि द्रव्य 'मंगल' कहलाते हैं। इनका विवाह आदि मंगल कार्य में उपयोग होता है। अध्ययन २२ : श्लोक ६-१४ टि० ६-१५ उत्तरपुराण में 'धरण' के स्थान में 'धारण' और 'अभिचन्द्र' के स्थान में 'अभिनन्दन' नाम मिलता है । सम्भवतः इन्हीं के कारण 'दसार' शब्द चला किन्तु आगे चलकर वह यदुसमूह के अर्थ में रूढ़ हो गया। अन्तकृतदशा में 'दसण्डं दसाराणं' पाठ मिलता है। इसमें दसार के साथ दस शब्द और जुड़ा हुआ औषधियां इससे लगता है कि दूसरा शब्द प्रत्येक भाई या यदुवंशी के लिए प्रयुक्त होने लगा था। १४. वृष्णिपुंगव (गियो) बालमीकीय रामायण के अनुसार समारोहों पर घर का अलंकरण किया जाता था, जो 'कौतुक - मंगल' कहलाता था। ११. दिव्य वस्त्र युगल (दिव्वजुयल) प्राचीन काल में प्रायः दो ही वस्त्र पहने जाते थे – (१) अन्तरीय-नीचे पहनने के लिए धोती और (२) उत्तरीय ऊपर ओढ़ने के लिए चद्दर । १२. गन्धहस्ती पर (गंधहत्थि) गन्धहस्ती सब हस्तियों में प्रधान होता है, इसलिए इसे ज्येष्ठक (पट्ट - हस्ती) कहा गया है। इसकी गन्ध से दूसरे हाथ भाग जाते हैं या निर्वीय हो जाते हैं। १३. दसारचक्र से (दसारचक्केण ) समुद्रविजय आदि दस यादव और उनका समूह 'दसारचक्र' कहलाता था । शान्त्याचार्य तथा अभयदेव सूरि ने 'दसार' का संस्कृत रूप 'दशाह' किया है।' दशवैकालिक चूर्णि में 'सार' शब्द ही प्राप्त है। समुद्रविजय, अक्षोभ्य, स्तिमित, सागर, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र वसुदेव- ये दस भाई थे। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० सर्वाश्च ता औषधयश्च - जयाविजयार्द्धवृद्ध्यादयः सर्वोषधयस्ताभिः । २. वही, पत्र ४६० : कौतुकानि ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि मंगलानि ध-वपक्षतचन्दनादीनि ३. रामायणकालीन संस्कृति, पृ० ३२ । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० : दिव्ययुगलमिति प्रस्तावाद् दृष्ययुगलम् । ५. वही, पत्र ४६० ज्येष्ठमेव ज्येष्ठकम्— अतिशयप्रशस्यमतिवृद्धं वा गुणैः पट्टहस्तिनमित्यर्थः । ६. (क) वृहद्वृत्ति, पत्र ४६० 'दसारचक्केणं' ति दशार्हचक्रेण यदुसमूहेन । (ख) अन्कृद्दशांग 919, वृत्ति-दश च तेऽर्हाश्च पूज्या इति दर्शाहाः । ७. दशवैकालिक, जिनदास चूर्णि पृ० ४१ : जहा दसारा महुराओ जरासिंधुरायभयात् बारवई गया। ८. अंतगडदसाओ 919, वृत्ति दसहं दसाराणं ति तत्रैते दशसमुद्रविजयोऽक्षोभ्यः स्तिमितः सागरस्तथा । हिमवानचलश्चैव धरणः पूरणस्तथा ।। अभिचन्द्रश्च नवमो, वसुदेवश्च वीर्यवान् । Jain Education International देखें श्लोक ८ का टिप्पण । 1 अन्धक और वृष्णि ये दो भाई थे वृष्णि अरिष्टनेमि के दादा थे। उनसे वृष्णि कुल का प्रवर्त्तन हुआ । अरिष्टनेमि वृष्णिकुल में प्रधान पुरुष थे। अतः उन्हें यहां वृष्णिपुङ्गव कहा गया है ।" दशवैकालिक तथा इस अध्ययन के ४३ वें श्लोक में इनका कुल 'अन्धक - वृष्णि' कहा गया है।" अन्धक - वृष्णिकुल दोनों भाइयों के संयुक्त नाम से प्रचलित था । उत्तरपुराण में 'अन्धक-वृष्टि शब्द है और यह एक ही व्यक्ति का नाम है सुशार्थ (कुशा ?) देश के सीर्यपुर नगर के स्वामी शूरसेन के शूरवीर नाम का पुत्र था। उसके दो पुत्र हुए अन्धकदृष्टि और नरमृष्टि समुद्रविजय आदि अन्धकदृष्टि के पुत्र थे । २ १५. (श्लोक १४-२२) है उत्तराध्ययन के अनुसार अरिष्टनेमि ने बाड़ों में राके हुए जानवरों को देखा, उनके बारे में सारथि से पूछा । सारथि ने बताया—ये आपके विवाह के भोज के लिए हैं। अरिष्टनेमि ने इसे अपने लिए उचित न समझा। उन्होंने अपने सारे आभरण उतार कर सारथि को दे दिए और वे अभिनिष्क्रिमण के लिए तैयार हो गए। यावत् । ११. दशवैकालिक, २८ । १२. उत्तरपुराण ७०६२-६४ : 1 वे जानवर कहां रोके हुए थे और किसने रोके थे ? मूल आगम में इसकी कोई चर्चा नहीं है सुखयोधा के अनुसार वे कन्ये कुन्ती माही विश्रुते।। | ६. उत्तरपुराण, ७० ६५ ६७ धर्मावान्धकवृष्टेश्च सुभद्रायाश्च तुम्बराः । समुद्रविजयो ऽक्षोभ्यस्ततः स्तिमितसागरः ।। हिमवान् विजयो विद्वान्, अचलो धारणाहयः । पूरणः पूरितार्थीच्छो, नवमोऽप्यभिनन्दनः || वसुदेवोऽन्तिभश्चैवं दशाभूवन् शशिप्रभाः । कुन्ती माद्री च सोमे वा सुते प्रादुर्बभूवतुः ।। १० वृहद्वृत्ति, पत्र ४६० 'बृष्णिपुंगवः' यादवप्रधानो भगवानरिष्टनेमिरिति तदा कुशाथविषये तद्धंशाम्वरभास्वतः । अवार्यनिजशौर्येण निर्जिताशेषविद्विषाः । ख्यातशौर्यपुराधीश-सूरसेनमहीपतेः ।। सुतस्य शूरवीरस्य धारिण्याश्च तनृद्भवी । विख्यातो ऽन्धकवृष्टिश्च पतिर्वृष्टिर्नरादिवाक् ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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