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________________ रथनेमीय ३६५ अध्ययन २२ : श्लोक १५-१६ टि० १६-२२ से पकड़वा इकट्ठा कर उसके चार उनसे उग्रसेन के द्वारा विवाह-मण्डप के आस-पास ही बाड़ों में रोके वाले या जीवन की अन्तिम दशा में होने वाले प्राणियों को हुए थे। ___ 'मृत्यु-सम्प्राप्त' कहा है। उत्तरपराण में इससे भिन्न कल्पना है। उसके अनुसार गाटा के लिा गटा) श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि को विरक्त करने के लिए बाड़ों में (१) मांस के लिए या (२) मांस से मांस का उपचर होता हिरनों को एकत्रित करवाया था। श्रीकृष्ण ने सोचा-नेमिकुमार । है इसलिए अपना मांस बढ़ाने के लिए-ये दोनों ‘मंसट्ठा' के वैराग्य का कुछ कारण पाकर भोगों से विरक्त हो जाएंगे। ऐसा अर्थ हो सकते हैं। विचार कर वे वैराग्य का कारण जुटाने का प्रयत्न करने लगे। उनकी समझ में एक उपाया आया। उन्होंने बडे-बडे शिकारियों १८. महाप्रज्ञ (माहपन्ने) से पकड़वा कर अनेक मृगों का समूह बुलाया और उसे एक इसका प्रकरणगत अर्थ है—मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और स्थान पर इकट्ठा कर उसके चारों ओर बाड लगवा दी तथा अवधिज्ञान से सम्पन्न।' वहां जो रक्षक नियुक्त किए थे उनसे कह दिया कि यदि १९. सारथि से (सारहिं) भगवान नेमिनाथ दिशाओं का अवलोकन करने के लिए आएं . -अरिष्टनेमि राजभवन से गन्ध-हस्ती पर आरूढ़ और इन मृगों के विषय में पूछे तो उनसे साफ-साफ कह देना होकर चले थे परन्तु सम्भवतः विवाह-मण्डप के समीप पहुंचकर कि आपके विवाह में मारने के लिए चक्रवर्ती ने यह मृगों का वे रथ पर चढ गए. यह इस 'सारथि' शब्द से सूचित होता समूह बुलवाया है। है या 'महावत' के अर्थ में ही सारथि शब्द प्रयुक्त हुआ है। __एक दिन नेमिकुमार चित्रा नामकी पालकी पर आरूढ़ होकर दिशाओं का अवलोकन करने के लिए निकले। वहां २०. ये (इमे...एए) उन्होंने घोर करुण स्वर से चिल्ला-चिल्लाकर इधर-उधर इन शब्दों का ऊहापोह करते हुए वृत्तिकार ने दो दौड़ते, प्यासे, दीनदृष्टि से युक्त तथा भय से व्याकुल हुए मृगों विकल्प प्रस्त विकल्प प्रस्तुत किए हैंको देख दयावश वहां के रक्षकों से पूछा कि यह पशुओं का १. 'इमे' का अर्थ है—ये सब। इस स्थिति से 'एए' बहुत भारी समूह यहां एक जगह किसलिए रोका गया है? शब्द निरर्थक हो जाता है। किन्तु इसका पुनः कथन, अरिष्टनेमि उत्तर में रक्षकों ने कहा—“हे देव ! आपके विवाहोत्सव में व्यय के करुणाद्रहृदय में वे प्राणी बार-बार उभर रहे हैं यह करने के लिए महाराज श्रीकृष्ण ने इन्हें बुलाया है।" यह सुनते पर ही भगवान् नेमिनाथ विचार करने लगे कि ये पशु जंगल में आचार्य नेमिचन्द्र का कथन है कि इसका प्रयोग घबड़ाहट रहते हैं, तृण खाते हैं और कभी किसी का कुछ अपराध नहीं बताने के लिए अपराध नहीं बताने के लिए हुआ है। करते हैं फिर भी लोग इन्हें अपने भोग के लिए पीड़ा पहुंचाते २. 'इमे' का अर्थ है-प्रत्यक्ष में दीखने वाले और 'एए' हैं। ऐसा विचार कर वे विरक्त हुए और लौट कर अपने घर पर का ७ का अर्थ है—निकटवर्ती। कहा भी हैआ गए। रत्नत्रय प्रकट होने से उसी समय लोकांतिक देवों ने इदम: प्रत्यक्षगतं समीपतरवर्ति चैतदो रूपम्।। आकर उन्हें समझाया। अपने पूर्व-भवों का स्मरण कर वे भय २१. भद्र (भद्दा) से कांप उठे। उसी समय उन्होंने आकर दीक्षा-कल्याण का वे प्राणि 'श्रेष्ठ' या 'निरपराध' थे इसलिए उन्हें यहां उत्सव किया। 'भद्र' कहा गया है। कुत्ते, सियार आदि अभद्र माने जाते हैं।" किन्तु इसकी उपेक्षा उत्तराध्ययन का विवरण अधिक .. २२. परलोक में (परलोगे) हृदयस्पर्शी है। भगवान् अरिष्टनेमि चरम-शरीरी और विशिष्ट-ज्ञानी १६. मरणासन्न दशा को प्राप्त (जीवियंत तु संपत्ते) थे। फिर भी 'परलोक में मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा' यह 'जीवियंतं तु संपत्ते'-यहां निकट भविष्य में मारे जाने १. सुखबोधा, पत्र २७६। यस्यासी महाप्रज्ञः। २. उत्तरपुराण, ७१।१५२-१६८। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६१ : 'सारथिं' प्रवर्त्तयितार प्रक्रमाद्गन्धहस्तिनो ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६० : जीवितस्यान्तो-जीवितान्तो मरणमित्यर्थस्त्र हस्तिपकमितियावत् यद्वाऽत एव तदा रथारोहणमनुमीयत इति संप्राप्तानिव संप्राप्तान, अतिप्रत्यासन्नत्वात्तस्य, यद्वा जीवितस्यान्तः- रथप्रवर्त्तयितारम्। पर्यन्तवर्ती भागस्तमुक्तहेतोः संप्राप्तान्। ७. वही, पत्र ४९१ : एते इति पुनरभिधानमतिसार्द्रहृदयतया पुनः पुनस्त ४. वही, पत्र ४६०-४६१ : 'मांसार्थ' मांसनिमित्तं च भक्षयितव्यान एव भगवतो हृदि विपरिवर्त्तन्त इति ख्यापनार्थम्। मांसस्यैवातिगृद्धिहेतुत्चेन तद्भक्षणनिमित्तत्वादेवमुक्त, यदि वा 'मांसेनैव ८. सुखबोधा, पत्र २६२ : एते इति पुनरभिधानं सम्भ्रमख्यापनार्थम् । मांसमुपचीयते' इति प्रवादतो मांसमुपचितं स्यादिति मांसार्थम्। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४६१। ५. वही, पत्र ४६१ : महती प्रज्ञा-प्रक्रमान्मतिथूतावधिज्ञानत्रयात्मिका १०. वहीं, पत्र ४६१ : 'भद्दा उ' त्ति 'भद्रा एव' कल्याणा एव न तु श्वशृगालादयः एव कुत्सिताः, अनपराधतया वा भद्राः । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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