SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पण अध्ययन १०: द्रुमपत्रक १. वृक्ष का पका हुआ पत्ता (दुमपत्तए पंडुयए) की आयु मानी जाती है। यह सामान्य नियम है। विशेष रूप में जीवन की नश्वरता को पके हुए द्रुम-पत्र की उपमा से वह अधिक भी हो सकती है। समझाया गया है। नियुक्तिकार ने यहां पके हुए पत्र और कोंपल ४. विघ्नों से भरा हुआ (पच्चवायए) का एक उद्बोधक संवाद प्रस्तुत किया है। पके हुए पत्र ने प्रत्यपाय का अर्थ है-विघ्न । जीवन को घटाने या उसका किसलयों से कहा-“एक दिन हम भी वैसे ही थे, जैसे कि तुम उपघात करने वाले अनेक हेतु हैं। स्थानांग सूत्र में आयुष्य-भेद हो और एक दिन तुम भी वैसे ही हो जाओगे, जैसे कि हम हैं।" के सात कारण निर्दिष्ट हैं - अनुयोगद्वार में इस कल्पना को और अधिक सरस रूप १. अध्यवसान-राग, स्नेह, भय आदि की तीव्रता। दिया गया है। पके हुए पत्तों को गिरते देख कोपलें हंसी। तब २. निमित्त-शस्त्रप्रयोग आदि। पत्तों ने कहा-"जरा ठहरो, एक दिन तुम पर भी वही बीतेगी, ३. आहार-आहार की न्यूनाधिकता। जो आज हम पर बीत रही है।"२ ४. वेदना-नयन आदि की तीव्रतम वेदना। तुलना ५. पराघात-गढे आदि में गिरना। पान पड़तो देख नै, हंसी रे कोपलियां। ६. स्पर्श-सर्प आदि का स्पर्श । मों बीती तो बीतसी, धीरी बापडियां। ७. आन-अपान—उच्छ्वास-निःश्वास का निरोध । जैसे वृन्त से टूटते हुए पीले पत्ते ने किसलयों को मर्म की ५. कर्म के विपाक तीव्र होते हैं (गाढा य विवाग कम्मुणो) बात कही, वैसे ही जो पुरुष यौवन से मत्त होते हैं, उन्हें यह गाढ के दो अर्थ हैं चिकना और दृढ़। 'विवाग कम्मुणो'सोचना चाहिए। कर्म का विपाक-यहां विशेष अर्थ का द्योतक है। इस वाक्यांश परिभवसि किमिति लोक, जरसा परिजर्जरीकृतशरीरम्। के द्वारा मनुष्यगति की विघातक प्रकृतियों का ग्रहण किया गया अचिरात् त्वमपि भविष्यसि, यौवनगर्व किमुद्वहसि ? है। मनुष्यगति प्राप्त होना सुलभ नहीं है-यह इसका तात्पर्यार्थ 'पंहुयए'-इसका शाब्दिक अर्थ-सफेद-पीला या सफेद है। जीव अन्यान्य जीव-निकायों में चिरकाल तक रह सकता है, रंग है। वृक्ष का पत्ता पकने पर इस रंग का हो जाता है। इसके किन्तु मनुष्य भव में उसकी स्थिति अल्प होती है, इसलिए दो कारण हैं-(१) काल का परिपाक (२) किसी रोग-विशेष का उसकी प्राप्ति दुर्लभ मानी जाती है। आक्रमण। पंडुयए का भावानुवाद 'पका हुआ' किया गया है। ६. (श्लोक ५-१४) २. कुश (कुस) जीव एक जन्म में जितने काल तक जीते हैं, उसे यह दर्भजाति या तृणविशेष है। यह दर्भ से पतला होता है 'भव-स्थिति' कहा जाता है और मृत्यु के पश्चात् उसी और इसकी नोंक तीखी होती है। जीव-निकाय के शरीर में उत्पन्न होने को 'काय-स्थिति' कहा ३. क्षणभंगुर (इत्तरियम्मि) जाता है। देव और नारकीय जीव मृत्यु के पश्चात् पुनः देव इत्वरिक का अर्थ है—अल्पकालिक। वर्तमान में सौ वर्ष और नारक नहीं बनते। उनके 'भव-स्थिति' ही होती है, १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३०८: ५. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८८ : कुसो दब्भसरिसो...तत् कुशो हि जह तुम्भे तह अम्हे, तुब्मेवि अ होहिहा जहा अम्हे। तनुतरो भवति दर्भात्। अप्पाहेइ पडतं पंडुरवत्तं किसलयाणं ।। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८८ : इत्तरियं अल्पकालिक वर्षशतमात्र। अणुओगदाराई, सूत्र ५६६ : ७. ठाणं ७७२ : सत्तविथे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहापरिजरियपेरंतं, चलंतवेंट पडतनिच्छीरं। अज्झवसाणणिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाते। पत्तं वसणप्पत्तं, कालप्पत्तं भणइ गाहं ।। फासे आणापाणू, सत्तविधे भिज्जए आउं।। जह तुब्भे तह अम्हे, तुम्हेऽवि अ होहिहा जहा अम्हे। (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८८, १८६ । अप्पाहेइ पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं ।। (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३३५।। ३. सुखबोधा, पत्र १६०। ६. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १८६ : सुदुर्लभं मानुष्यं यस्माद् अन्येषु जीवस्थानेषु ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३३३ : 'पंडुयए' ति आर्षत्यात पाण्डरकं चिरं जीवोऽवतिष्ठते, मनुष्यत्वे तु स्तोक कालमित्यतो दुर्लभं। कालपरिणामतस्तथाविधरोगादेर्वा प्राप्तवलक्षभावम्। १०. स्थानांग, २२५६। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy