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________________ उत्तरज्झयणाणि १८८ अध्ययन १० :श्लोक १५-१७ टि० ७-१० 'काय-स्थिति' नहीं होती।' तिर्यंच और मनुष्य मृत्यु के पश्चात् प्रस्तुत प्रकरण में क्षेत्र की दृष्टि से आर्यत्व विवक्षित है। पुनः तिर्यंच और मनुष्य बन सकते हैं इसलिए उनके 'काय-स्थिति' चूर्णिकार का अभिमत भी यही है। क्षेत्रार्य की परिभाषा समय-समय भी होती है। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के जीव लगातार पर बदलती रही है। प्रज्ञापना में क्षेत्रार्य का एक वर्गीकरण असंख्य अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी परिमित काल तक अपने-अपने मिलता है। उसके अनुसार मगध, अंग, बंग आदि साढ़े पचीस स्थानों में जन्म लेते रहते हैं। वनस्पतिकाय के जीव अनंत काल देश क्षेत्रार्य माने गए हैंतक वनस्पतिकाय में ही रह जाते हैं। दो, तीन और चार इन्द्रिय १. मगध १०. जांगल १६. चेदि वाले जीव हजारों-हजारों वर्षों तक अपने-अपने निकायों में २. अंग ११. सौराष्ट्र २०. सिंधु-सौवीर जन्म ले सकते हैं। पांच इन्द्रिय वाले जीव लगातार एक सरीखे ३. बंग १२. विदेह २१. शूरसेन सात-आठ जन्म ले सकते हैं। ४. कलिंग १३. वत्स २२. भंगि पांच इन्द्रिय वाले तिर्यंच जीवों की कायस्थिति जघन्यतः ५. काशी १४. शांडिल्य २३. वट्ट अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम पृथक् पूर्वकोटि की ६. कौशल १५. मलय २४. कुणाल है।" पृथक् पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है—दो से नौ तक। ७. कुरु १६. मत्स्य २५. लाढ पृथक् पूर्वकोटि अर्थात् दो से नौ पूर्वकोटि तक। तीन पल्योपम ८. कुशावर्त १७. वरणा अर्ध कैकय। का आयुष्य यौगलिक तिर्यंचों का होता है। इस दृष्टि से पांच ६. पांचाल १८. दशार्ण इन्द्रिय वाले तिर्यंचों की उत्कृष्ट भवस्थिति एक कोटिपूर्व होने से ९. दस्यु और म्लेच्छ (दसुया मिलेक्खुया) सात भवों का कालमान सात कोटिपूर्व होता है। कोई तिर्यंच दस्य का अर्थ है देश की सीमा पर रहने वाला चोर।० पंचेन्द्रिय जीव सात भव इस अवधि का करता है और आठवां मिलेक्खु का अर्थ 'म्लेच्छ' है। सूत्रकृतांग में 'मिलक्खु" भव तिर्यंच यौगलिक का करता है। कुल मिलाकर उसकी स्थिति और अभिधानप्पदीपिका में 'मिलक्ख' शब्द मिलता है। यहां तीन पल्य और सात कोटिपूर्व की हो जाती है। एकार अधिक है। यह शब्द संस्कृत के म्लेच्छ शब्द का रूपान्तर ७. (श्लोक १५) नहीं, किन्तु मूलतः प्राकृत भाषा का है। जीव जो संसार में परिभ्रमण करता है, उसका हेतु बन्धन जिसकी भाषा अव्यक्त होती है, जिसका कहा हुआ आर्य है। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म जीव को बांधे हुए रहते लोग नहीं समझ पाते, उन्हें म्लेच्छ कहा जाता है। वृत्तिकार ने हैं। ये बन्धन टूटते हैं तब जीव मुक्त हो जाते हैं।' इस श्लोक शक, यवन, शबर आदि देशों में उत्पन्न लोगों को म्लेच्छ कहा में संसार के हेतु का वर्णन है। बन्धन के इन दोनों प्रकारों और है। वे आर्यों की व्यवहार-पद्धति-धर्म-अधर्म, गम्य-अगम्य, उनका नाश होने पर मुक्त होने का सिद्धान्त गीता में भी मिलता भक्ष्य-अभक्ष्य-से भिन्न प्रकार का जीवन जीते थे, इसलिए आर्य लोग उन्हें हेय दृष्टि से देखते थे। आचार्य नेमिचन्द्र ने ८. आर्यत्व (आरियत्तं) म्लेच्छ देशों के कुछेक नाम तथा म्लेच्छ लोगों के व्यवहार का आर्य नौ प्रकार के बतलाए गए हैं - निदर्शन किया है। १. क्षेत्र आर्य ६. भाषा आर्य १०. इन्द्रियहीन (विगलिंदियया) २. जाति आर्य ७. ज्ञान आर्य विकलेन्द्रिय'-यह जीवों का एक वर्गीकरण है। इसमें ३. कुल आर्य ८. दर्शन आर्य द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का समाहार होता है। ४. कर्म आर्य ६. चारित्र आर्य। यहां विकलेन्द्रिय का प्रयोग इस पारिभाषिक अर्थ में नहीं है। ५. शिल्प आर्य इसका अर्थ है-इन्द्रियों की विकलता, आंख-कान आदि इन्द्रियों १. स्थानांग, २।२६१ : दोण्ह भवट्ठिती....... | ६. प्रज्ञापना १६३ । २. वही, २२६०: दोण्ह कायट्टिती......। १०. बृहवृत्ति, पत्र ३३७ : दस्यवो-देशप्रत्यन्तवासिनश्चीरा। ३. बृहवृत्ति, पत्र ३३६। ११. सूयगडो, ११।४२ : मिलक्खू अमिलक्खुस्स, जहा वुत्ताणुभासए। ४. जीवाजीवाभिगम ६२२५। ण हेउं से वियाणाइ, भासियं तऽणुभासए।। ५. उत्तराध्ययन, २१।२४। १२. (क) अभिधानप्पदीपिका, २१८६ : मिलक्ख देसो, पच्चन्तो। ६. (क) गीता, २५० : बुद्धियुक्तो जहातीह, उभे सूकतदुष्कते। (ख) वही, २१५१७ : मिलक्ख जातियो (प्यथ)। तस्माद्योगाय युज्यस्व, योगः कर्मसु कौशलम् ।। १३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६०। (ख) गीता, ६२८ : (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३३७ : "मिलेक्खु य' त्ति म्लेच्छा-अव्यक्तबाबो, शुभाशुभफलैरेवं, मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः । न यदुक्तमायैरवधार्यते, ते च शकयवनशबरादिदेशोद्भवाः, येप्यवाप्यापि संन्यासयोगयुक्तात्मा, विमुक्तो मामुपैष्यसि ।। मनुजत्व जन्तुरुत्पद्यते, एते च सर्वेऽपि धर्माधर्मगम्यागम्यभक्ष्याभक्ष्या७. प्रज्ञापना ११६२। दिसकलार्यव्यवहारबहिष्कृतास्तिर्यक्प्राया एव । ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० १६०। १४. सुखबोथा, पत्र १६२। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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