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________________ पाप - श्रमणीय ८. दवदवस्स चरई पमत्ते य अभिक्खणं । उल्लंघणे व चंडे य पावसमणि त्ति वुच्चई ।। ८. पडिलेड पमत्ते अवउज्झइ पायकंबलं । पडिले हणाअणाउत्ते पावसमणि ति बुच्चई ।। १०. पडिलेहेइ पमत्ते से किंचि हु निसामिया । गुरुपरिभावए निच्चं पावसमणि ति बुच्चई ।। ११. बहुमाई मुहरे थद्धे लुद्धे अणिग्गहे । असंविभागी अचियत्ते पावसमणि त्ति दुच्चई ।। १२. विवादं च उदीरेह अहम्मे अत्तपण्णहा । वुग्गहे कलहे रत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ।। १३. अथिरासणे कुक्कुईए जत्य तत्थ निसीयई । आसणम्मि अणाउते पावसमणि त्ति वुच्चई ।। १४. ससरक्खपाए सुवई सेज्जं न पडिलेहइ । संथारए अणाउत्ते पावसमणि त्ति वुच्चई ।। १५. दुद्धदहीविगईओ आहारेइ अभिक्खणं । अरए य तवोकम्मे पावसमणि त्ति वुच्चई ।। १६. अत्यंतम्मिय सूरम्मि आहारेह अभिक्खणं । चोइओ पडिचोएइ पावसमणि त्ति वुच्चई || Jain Education International २७९ 'दवदवस्स' चरति प्रमत्तश्चाभीक्ष्णम्। उल्लंघनश्च चण्डश्च पापश्रमण इत्युच्यते ।। प्रतिलेखयति प्रमत्तः अपोज्झति पादकम्बलम् । प्रतिलेखना ऽनायुक्तः पापश्रमण इत्युच्यते ।। प्रतिलेखयति प्रमत्तः स किंचित् खलु निशम्य । गुरुपरिभावको नित्यं पापश्रमण इत्युच्यते ।। बहुमायी प्रमुखरः स्तब्धी योनिग्रहः । असंविभागी 'अचियत्ते' पापश्रमण इत्युच्यते ।। विवादं चोदीरयति अधर्मः आत्मप्रज्ञाहा । व्युद्ग्रहे कलहे रक्तः पापश्रमण इत्युच्यते ।। अस्थिरासनः कौकुचिका यत्र तत्र निषीदति । आसने ऽनायुक्तः पापश्रमण इत्युच्यते ।। ससरक्षपादः स्वपिति शय्यां न प्रतिलिखति । संस्तारक उनायुक्तः पापश्रमण इत्युच्यते ।। दुग्बदमिविकृतीः आहारत्यनीक्ष्णम्। अरतश्च तपःकर्मणि पापश्रमण इत्युच्यते ।। अस्तान्ते च सूर्ये आहरत्यभीक्ष्णम् । चोदितः प्रतिचोदयति पापश्रमण इत्युच्यते ।। अध्ययन १७ : श्लोक ८-१६ जो द्रुतगति से चलता है, जो बार-बार प्रमाद करता है, जो प्राणियों को लांघ कर उनके ऊपर होकर चला जाता है, जो क्रोधी है, वह पाप श्रमण कहलाता है । जो असावधानी से प्रतिलेखन करता है, जो पादकम्बल को जहां कहीं रख देता है, इस प्रकार जो प्रतिलेखना में असावधान होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। जो कुछ भी बातचीत हो रही हो उसे सुनकर प्रतिलेखना में असावधानी करने लगता है, जो गुरु का तिरस्कार करता है" शिक्षा देने पर उनके सामने बोलने लगता है, वह पाप श्रमण कहलाता है।" जो बहुत कपटी, वाचाल, अभिमानी, लालची, इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण न रखने वाला, भक्त पान आदि का संविभाग न करने वाला और गुरु आदि से प्रेम न रखने वाला होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। जो शांत हुए विवाद को फिर से उभाड़ता है, जो सदाचार से शून्य होता है, जो (कुतर्क से अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, १३ जो कदाग्रह और कलह में* रक्त होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। जो स्थिरासन नहीं होता-बिना प्रयोजन इधर-उधर चक्कर लगाता है, जो हाथ, पैर आदि अवयवों को हिलाता रहता है, जो जहां कहीं बैठ जाता है" इस प्रकार आसन (या बैठने) के विषय में जो असावधान होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है । जो सचित्त रज से भरे हुए पैरों का प्रमार्जन किए बिना ही सो जाता है, सोने के स्थान का प्रतिलेखन नहीं करता इस प्रकार बिछौने (या सोने) के विषय में जो असावधान होता है, " वह पाप श्रमण कहलाता है। जो दूध, दही आदि विकृतियों का" बार-बार आहार करता है और तपस्या में रत नहीं रहता, वह पाप श्रमण कहलाता है 1 जो सूर्य के उदय से लेकर अस्त होने तक बार-बार खाता रहता है। ऐसा नहीं करना चाहिए'- इस प्रकार सीख देने वाले को कहता है कि तुम उपदेश देने में कुशल हो, करने में नहीं, वह पाप - श्रमण कहलाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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