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________________ उत्तरज्झयणाणि २८० अध्ययन १७ : श्लोक १७-२१ १७.आयरियपरिच्चाई आचार्यपरित्यागी जो आचार्य को छोड़ दूसरे धर्म-सम्प्रदायों में२० चला परपासंडसेवए। परपाषण्डसेवकः। जाता है, जो छह मास की अवधि में एक गण से गाणंगणिए दुब्भूए गाणगणिको दुर्भूतः दूसरे गण में संक्रमण करता है, जिसका आचारण पावसमणि त्ति वुच्चई।। पापश्रमण इत्युच्यते।। निन्दनीय है, वह पाप-श्रमण कहलाता है। १८.सयं गेहं परिचज्ज स्वकं गेहं परित्यज्य जो अपना घर छोड़कर (प्रव्रजित होकर) दूसरों के घर परगेहंसि वावडे। परगेहे व्याप्रियते। में व्याप्त होता है२२–उनका कार्य करता है, जो निमित्तेण य ववहरई निमित्तेन च व्यवहरति शुभाशुभ बता कर धन का अर्जन करता है, वह पावसमणि त्ति वुच्चई।। पापश्रमण इत्युच्यते।। पाप-श्रमण कहलाता है। १६.सन्नाइपिंडं जेमेइ स्वज्ञातिपिण्डं जेमति जो अपने ज्ञाति-जनों के घर का भोजन करता है, नेच्छई सामुदाणियं। नेच्छति सामुदानिकम्। किन्तु सामुदायिक भिक्षा करना नहीं चाहता, जो गिहिनिसेज्जं च वाहेइ गृहिनिषद्यां च वाहयति गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, वह पाप-श्रमण पावसमणि त्ति वुच्चई।। पापश्रमण इत्युच्यते।। कहलाता है। २०.एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे एतादृशः पंचकुशीलाऽसंवृतः जो पूर्वोक्त आचरण करने वाला, पांच प्रकार के रूवंधरे मुणिपवराण हेट्ठिमे। रूपधरो मुनिप्रवराणामधस्तनः।। कुशील साधुओं* की तरह असंवृत, मुनि के वेश को अयंसि लोए विसमेव गरहिए अस्मिल्लोके विषमिव गर्हितः धारण करने वाला और मुनि-प्रवरों की अपेक्षा तुच्छ न से इहं नेव परत्थ लोए।। न स इह नैव परत्र लोके।। संयम वाला होता है, वह इस लोक में विष की तरह निंदित होता है। वह न इस लोक में कुछ होता है और न परलोक में। २१.जे वज्जए एए सया उ दोसे यो वर्जयत्येतान् सदा तु दोषान् जो इन दोषों का सदा वर्जन करता है वह मुनियों में से सुव्वए होइ मुणीण मज्झे। स सुव्रतो भवति मुनिनां मध्ये। सुव्रत होता है। वह इस लोक में अमृत की तरह अयंसि लोए अमयं व पूइए अस्मिँल्लोकेऽमृतमिव पूजितः पूजित होता है तथा इस लोक और परलोक-दोनों आराहए दुहओ लोगमिणं ।। आराधयति द्विधा लोकमिमम्।। लोकों की आराधना करता है। —त्ति बेमि।। --इति ब्रवीमि। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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