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________________ सतरसमं अज्झयणं पावसमणिज्जं मूल १. जे के इमे पव्वइए नियंठे धम्मं सुणित्ता विणओववन्ने सुदुल्लाहं लहिउं बोहिलामं विहरेज्न पच्छा य जहासुहं तु । २. सेज्जा दढा पाउरणं मे अत्थि उप्पज्जई भोतुं तहेब पाउं जानामि जे वह आउसु । ति किं नाम काहामि सुएण भत । ॥ ३. जे के इमे पव्वइए निद्दासीले पगामसो । भोच्चा पेच्चा सुहं सुवइ पावसमणि त्ति वुच्चई || ४. आयरियउवज्झाए हिं सुर्य विषयं च गाहिए। ते चैव खिंसई बाले पावसमणि त्ति वुच्चई || ५. आयरियउवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पड़ । अप्पडिपूयए थ पावसमणि त्ति दुच्चई ।। ६. सम्मद्दमाणे पाणाणि बीयाणि हरियाणि य । असंजए संजयमन्नमाणे पावसमणि ति बुच्चई । ७. संथारं फलगं पीछे निसेज्जं पायकंबलं । अप्पमज्जियमारुहइ पावसमणि त्ति वुच्चई ।। Jain Education International । सतरहवां अध्ययन पाप- श्रमणीय संस्कृत छाया यः कश्चिदयं प्रव्रजितो निर्ग्रन्थः धर्म श्रुत्वा विनयोपपन्नः । सुदुर्लभं लब्ध्वा बोधिलाभं विहरेत् पश्चाच्च यथासुखं तु ।। शय्या दृढा प्रावरणं मेऽस्ति, उत्पद्यते भोक्तु तथैव पातुम् । जानामि यद्वर्तत आयुष्मन् ! इति किं नाम करिष्यामि श्रुतेन भदन्त ? यः कश्चिदयं प्रव्रजितो निद्राशीलः प्रकामशः । भुक्त्वा पीत्वा सुखं स्वपिति पापश्रमण इत्युच्यते ।। आचार्योपाध्यायः श्रुतं विनयं च ग्राहितः । तांश्चैव खिंसति बालः पापश्रमण इत्युच्यते ।। आचार्योपाध्यायानां सम्यग् न प्रतितप्यते । अप्रतिपूजकः स्तब्धः पापश्रमण इत्युच्यते ।। संमदयन् प्राणान् बीजानि हरितानि च । असंयतः संयतं मन्यमानः पापश्रमण इत्युच्यते ।। संस्तारं फलकं पीठं निषद्यां पादकम्बलम् । अप्रमृज्यारोहति पापश्रमण इत्युच्यते । । हिन्दी अनुवाद जो कोई निर्ग्रन्थ धर्म को सुन, दुर्लभतम बोधि-लाभ ' को प्राप्त कर विनय से युक्त हो प्रव्रजित होता है किन्तु प्रव्रजित होने के पश्चात् स्वच्छन्द - विहारी हो जाता है। ( गुरु के द्वारा अध्ययन की प्रेरणा प्राप्त होने पर वह कहता है — ) मुझे रहने को अच्छा उपाश्रय मिल रहा है, कपड़ा भी मेरे पास है, खाने-पीने को भी मिल जाता है। आयुष्मन् ! जो हो रहा है, उसे मैं जान लेता हूं। भंते! फिर मैं श्रुत का अध्ययन कर क्या करूंगा ?" जो प्रव्रजित होकर बार-बार नींद लेता है, खा-पी कर आराम से लेट जाता है, वह पाप श्रमण कहलाता है । जिन आचार्य और उपाध्याय ने श्रुत और विनय सिखाया उन्हीं की निन्दा करता है, वह विवेक-विकल भिक्षु पाप श्रमण कहलाता है। जो आचार्य और उपाध्याय के कार्यों की सम्यक् प्रकार से चिन्ता नहीं करता उनकी सेवा नहीं करता, जो बड़ों का सम्मान नहीं करता, जो अभिमानी होता है, वह पाप श्रमण कहलाता है। द्वीन्द्रिय आदि प्राणी तथा बीज और हरियाली का मर्दन करने वाला, असंयमी होते हुए भी अपने आपको संयमी मानने वाला, पाप- श्रमण कहलाता है। जो बिछौने, पाट, पीठ, आसन और पैर पोंछने के कम्बल का प्रमार्जन किए बिना (तथा देखे बिना ) उन पर बैठता है, वह पाप श्रमण कहलाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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