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इस अध्ययन में पाप श्रमण के स्वरूप का निरूपण है, इसलिए इसे 'पावसमणिज्जं'- -'पाप-श्रमणीय' कहा गया है।
श्रमण दो प्रकार के होते हैं— श्रेष्ठ- श्रमण और पाप श्रमण । जो ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारों का पालन करता है वह श्रेष्ठ श्रमण है। उसके लक्षण पन्द्रहवें अध्ययन में बताए गए हैं। जो ज्ञान आदि आचारों का सम्यक् पालन नहीं करता, इस अध्ययन में वर्णित अकरणीय कार्यों का आचरण करता है, वह पाप श्रमण होता है ।'
जो प्रव्रज्या ग्रहण कर सुख-शील हो जाता है— 'सीहत्ताए णिक्खतो सियालत्ताए विहरति ' — सिंह की भांति निष्क्रांत होने पर भी गीदड़ की तरह प्रव्रज्या का पालन करता है, वह पाप श्रमण होता है। (श्लोक १)
आमुख
जो खा-पीकर सो जाता है वह पाप श्रमण होता है। जैन परम्परा में यह औत्सर्गिक मर्यादा रही है कि मुनि दिन में न सोए। इसके कई अपवाद भी हैं। जो मुनि विहार से परिश्रान्त हो गया हो, वृद्ध हो गया हो, रोगी हो, वह मुनि आचार्य से आज्ञा लेकर दिन में भी सो सकता है, अन्यथा नहीं ।"
१. उत्तराध्ययन निर्युक्ति, गाथा ३६० :
जे भावा अकरणिज्जा, इहमज्झयणमि वन्निअ जिणेहिं । ते भावे सेवतो, नायव्वो पावसमणोत्ति ।।
२. ओघनियुक्ति, गाथा ४१६ :
अद्धाण परिस्संतो, गिलाण वुड्ढो अणुन्नवेत्ताणं । संथात्तरपट्टो, अत्थरण निवज्जणा लोगं ।।
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आयुर्वेद के ग्रन्थों में सोने का विधान इस प्रकार है— नींद लेने का उपयुक्त काल रात है। यदि रात में पूरी नींद न आए तो प्रातःकाल भोजन से पूर्व सोए। रात में जागने से रूक्षता और दिन में लेटकर नींद लेने से स्निग्धता पैदा होती है। परंतु दिन में बैठे-बैठे नींद लेना न रूक्षता पैदा करता है और न स्निग्धता । यह स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है ।
जो मुनि आचार्य और उपाध्याय का प्रत्यनीक होता है, पापों से नहीं डरता, कलह की उदीरणा करता है, चंचल होता है, रस-गृद्ध होता है, तपः कर्म नहीं करता, गण और गणी को छोड़ देता है, वह पाप श्रमण है।
इस अध्ययन में
श्लोक १-४ में ज्ञान आचार की निरपेक्षता का वर्णन है। श्लोक ५ में दर्शन - आचार की निरपेक्षता का वर्णन है । श्लोक ६- १४ में चरित्र - आचार की निरपेक्षता का वर्णन है । श्लोक १५-१६ में तपः- आचार की निरपेक्षता का वर्णन है। श्लोक १७-१६ में वीर्य आचार की निरपेक्षता का वर्णन है ।
३. अष्टांगहृदय सूत्रस्थान ७१५५, ६५ यथाकाल मतो निद्रा, रात्री सेवेत सात्मतः । असात्म्या जागरादर्थं प्रातः स्वप्यादभुक्तवान् । रात्री जागरणं रूक्षं, स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा । अरूक्षमनभिस्यन्दि, त्वासीनप्रचलायितम् ।।
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