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________________ उत्तरज्झयणाणि २०६ हैं। दोनों नदियां मिलकर तारिम नदी हुई, जो 'लोबनोर' तक जाती है। भारतीय साहित्य में यही नदी 'शीता' के नाम से प्रख्यात है।" पौराणिक विद्वान् नील पर्वत की पहचान आज के कारकोरम से करते हैं। पुराणों के हेमकूट, निषध, नील, श्वेत तथा शृङ्गी पर्वत अनुक्रम से आज के हिन्दुकुश, सुलेमान, काराकोरम, कुवेनलुन तथा थियेनशान हैं। ३९. मंदर पर्वत (मंदरे गिरी ) मन्दर पर्वत सबसे ऊंचा पर्वत है और वहां से दिशाओं का प्रारम्भ होता है। उसे नाना प्रकार की औषधियों और वनस्पतियों से प्रज्वलित कहा गया है। वहां विशिष्ट औषधियां होती हैं। उनमें से कुछ प्रकाश करने वाली होती हैं। उनके योग से मंदर पर्वत भी प्रकाशित होता है। सूत्रकृतांग की वृत्ति में भी मेरुमन्दर पर्वत को औषधि सम्पन्न कहा है। कश्मीर के उत्तर में एक ही स्थान या बिंदु से पर्वतों की छह श्रेणियां निकलती हैं। इनके नाम हैं---हिमालय, काराकोरम, कुवेनलुन, हियेनशाल, हिन्दुकुश और सुलेमान । इनमें जो केन्द्र-बिन्दु है, उसे पुराणों के रचयिता मेरु पर्वत कहते हैं। यह पर्वत भू-पद्म की कर्णिका जैसा है।' ४०. ( समुद्दगंभीरसमा ) व्याकरण की दृष्टि से यह 'समुद्दसमगम्भीरा' होना चाहिए था, किन्तु छन्द - रचना की दृष्टि से 'गम्भीर' का पूर्व निपात हुआ है। बृहद्वृत्ति के अनुसार 'गाम्भीर्य' के स्थान में 'गम्भीर' का आर्ष-प्रयोग हुआ है । " 9. India and Central Asia (by P.C. Bagchi) p. 43. २. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १६४ । ३. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०० जहा मन्दरो थिरो उस्सिओ दिसाओ य अत्थ पवत्तंति । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५२ : 'नानौषधिभिः' अनेकविधविशिष्टमाहात्म्यवनस्पतिविशेषरूपाभिः प्रकर्षेण ज्वलितो— दीप्तः नानौषधिप्रज्वलितः, ता ह्यतिशायिन्यः प्रज्वलन्त्य एवासत इति तद्योगादसावपि प्रज्वलित इत्युक्तः, यद्वाप्रज्वलिता नानौषधयोऽस्मिन्निति प्रज्वलितनानौषधिः, प्रज्वलितशब्दस्य तु परनिपातः प्राग्वत् । ५. सूत्रकृतांग, १६ ।१२, वृत्ति पत्र १४७ 'गिरिवरे से जलिएव भोगे' असी मणिभिरौषधिभिश्च देदीप्यमानतया "भीम इव" भूदेश इव ज्वलित इति । Jain Education International अध्ययन ११ : श्लोक २६-३२ टि० ३६-४४ दुराशय (दुरासया) 'दुरासय' शब्द के संस्कृत रूप तीन होते हैं१. दुराश्रय- जिसका आश्रयण दुःखपूर्वक होता है । २. दुरासद -- जिसको प्राप्त करना कठिन होता है। ३. दुराशय - दुष्ट आशय वाला। आगमों में इन तीनों अर्थों में यह शब्द प्राप्त होता है । प्रस्तुत प्रसंग में 'दुराशय' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ इस प्रकार है-जिसके आशय को गंभीरता के कारण कठिनाई से जाना जाता है । वृत्तिकार ने इसके संस्कृत रूप दो दिए हैंदुराश्रय और दुरासद । अभिभूत करने की बुद्धि से जिसके पास पहुंचना कठिन होता है उसे दुराश्रय या दुरासद कहा जाता है। चूर्णि में केवल दुराश्रय की व्याख्या प्राप्त है। ४२. विपुल श्रुत से पूर्ण (सुयस्स पुण्णा विठलस्स) इसके तीन अर्थ हैं ११ १. चीदह पूर्वो से प्रतिपूर्ण २. विमल और निःशंकित वाचना से युक्त अथवा प्रचुर अर्थ के ज्ञाता । ३. अंग, अंगबाह्य आदि विस्तृत श्रुत के ज्ञाता । ४३. उत्तम अर्थ (मोक्ष) (उत्तमट्ठ) ४१. साधना का लक्ष्य है-बंधनमुक्ति या मोक्ष की प्राप्ति । पुरुषार्थ चतुष्टयी में मोक्ष को उत्तम कहा गया है। प्रस्तुत प्रसंग में उत्तमार्थ का अर्थ है- मोक्ष | ४४. श्रुत का आश्रयण करे (सुयमहिट्ठेज्जा) वृत्तिकार ने श्रुत के आश्रयण या अधिष्ठान के अनेक साध न बतलाए हैं-अध्ययन, श्रवण, चिंतन आदि । ६. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ० १६४ । ७. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३ । ८. (क) दशवैकालिक २६ : पक्खंदे जलियं जोई धूमकेउं दुरासयं । (दुरा (ख) उत्तराध्ययन १1१३: पसायए ते हु दुरासयं पि। (दुरासदं) (ग) प्रस्तुत श्लोक - दुराशय । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३ । १०. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ० २०१ | ११. ( क ) उत्तराध्ययन चूर्ण, पृ० २०१ । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३ । १२. बृहद्वृत्ति, पत्र ३५३ For Private & Personal Use Only अध्ययनश्रवणचिन्तनादिना आश्रयेत् । www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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