SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आमुख इस अध्ययन में बहुश्रुत की भाव-पूजा का निरूपण है, १२. बहुश्रुत जम्बू वृक्ष की भांति श्रेष्ठ होता है। इसलिए इसका नाम 'बहुस्सुयपूया'-'बहुश्रुतपूजा' रखा गया १३. बहुश्रुत सीता नदी की भांति श्रेष्ट होता है। है। यहां बहुश्रुत का मुख्य अर्थ चतुर्दश-पूर्वी है। यह सारा १४. बहुश्रुत मन्दर पर्वत की भांति श्रेष्ट होता है। प्रतिपादन उन्हीं से संबद्ध है। उपलक्षण से शेष सभी बहुश्रुत १५. बहुश्रुत नाना रत्नों से परिपूर्ण स्वयम्भूरमण समुद्र मुनियों की पूजनीयता भी प्राप्त होती है।' की भांति अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है। निशीथ-भाष्य-चूर्णि के अनुसार बहुश्रुत तीन प्रकार के बहुश्रुतता का प्रमुख कारण है विनय। जो व्यक्ति विनीत होते हैं होता है उसका श्रुत फलवान् होता है। जो विनीत नहीं होता १. जघन्य बहुश्रुत--जो निशीथ का ज्ञाता हो। उसका श्रुत फलवान नहीं होता। स्तब्धता, क्रोध, प्रमाद रोग २. मध्यम बहुश्रुत-जो निशीथ और चौदह-पूर्वो का और आलस्य-ये पांच शिक्षा के विघ्न हैं। इनकी तुलना मध्यवर्ती ज्ञाता हो। योगमार्ग के नौ विघ्नों से होती है। ३. उत्कृष्ट बहुश्रुत—जो चतुर्दश-पूर्वी हो। आठ लक्षणयुक्त व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त होती है (श्लोक सुत्रकार ने बहुश्रुत को अनेक उपमाओं से उपमित किया ४, ५) -- है। सारी उपमाएं बहुश्रूत की आंतरिक शक्ति और तेजस्विता को १. जो हास्य नहीं करता। प्रकट करती हैं..-- २. जो इन्द्रिय और मन का दमन करता है। १. बहुश्रुत कम्बोज के घोड़ों की तरह शील से श्रेष्ठ ३. जो मर्म प्रकाशित नहीं करता। होता है। ४. जो चरित्रवान् होता है। २. बहुश्रुत दृढ़ पराक्रमी योद्धा की तरह अजेय होता ५. जो दुःशील नहीं होता। ६. जो रसों में अतिगृद्ध नहीं होता। बहुश्रुत साठ वर्ष के बलवान हाथी की तरह अपराजेय ७. जो क्रोध नहीं करता। होता है। ८. जो सत्य में रत रहता है। ४. बहुश्रुत यूथाधिपति वृषभ की तरह अपने गण का सूत्रकार ने अविनीत के १४ लक्षण और विनीत के १५ प्रमुख होता है। गुणों का प्रतिपादन कर अविनीत और विनीत की सुन्दर समीक्षा बहुश्रुत दुष्पराजेय सिंह की तरह अन्य तीर्थकों में की है (श्लोक ६-१३)। श्रेष्ट होता है। इस अध्ययन में श्रुत-अध्ययन के दो कारण बताए हैं बहुश्रुत वासुदेव की भांति अबाधित पराक्रमवाला (श्लोक ३२)होता है। १. स्व की मुक्ति के लिए। बहुश्रुत चतुर्दश रत्नाधिपति चक्रवर्ती की भांति २. पर की मुक्ति के लिए। चतुर्दश-पूर्वधर होता है। दशवैकालिक में श्रुत-अध्ययन के चार कारण निर्दिष्ट हैंबहुश्रुत देवाधिपति शक्र की भांति संपदा का अधिपति १. मुझे श्रुत प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। होता है। २. मैं एकाग्रचित्त होऊंगा, इसलिए अध्ययन करना बहुश्रुत उगते हुए सूर्य की भांति तप के तेज से चाहिए। प्रज्वलित होता है। ३. मैं आत्मा को धर्म में स्थापित करूंगा, इसलिए १०. बहुश्रुत पूर्णिमा के चन्द्रमा की भांति सकल कलाओं अध्ययन करना चाहिए। से परिपूर्ण होता है। ४. मैं धर्म में स्थित होकर दूसरे को उसमें स्थापित ११. बहुश्रुत धान के भरे कोठों की भांति श्रुत से परिपूर्ण करूंगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। होता है। १. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३१७ : ३. उत्तराध्ययन ११३: ते किर चउदसपुची, सव्वक्खरसन्निवाइणो निउणा। अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लब्भइ। जा तेसिं पूया खलु, सा भावे ताइ अहिगारो।। थम्भा कोहा पमाएणं, रोगेणाऽलस्सएण य।। निशीथ पीठिका भाष्य चूर्णि, पृ० ४६५ : बहुस्सुयं जस्स सो बहुस्सुतो, ४. पातंजल योगदर्शन १३० : व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिसो तिविहो-जहण्णो, मज्झिमो, उक्कोसो। जहण्णो जेणपकप्पज्झयणं दर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः। अधीतं, उक्कोसो चोद्दस्स पुव्वधरो, तम्मज्झे मज्झिमो। ५. दशवकालिक ६ सूत्र ५ : सुयं मे भविस्सइ त्ति अज्झाइयव्वं भवइ । एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्यं भवइ । अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ। ठिओ पर ठावइस्सामि त्ति अज्झाइयव्यं भवइ। For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy