SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आमुख जार्ल सरपेन्टियर के अनुसार सभी आदर्शों में इस ३. एषणा समिति-जीवन-निर्वाह के आवश्यक अध्ययन का नाम 'समिईयो' है।' समवायांग में भी इसका यही उपकरणों-आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण और नाम है। नियुक्तिकार ने इसका नाम 'प्रवचन-मात' या उपयोग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। 'प्रवचन-माता' माना है। ४. आदान समिति–दैनिक व्यवहार में आने वाले ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग...--इन पदार्थों के व्यवहरण सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। पांच समितियों तथा मनो-गुप्ति, वाग्-गुप्ति और काय-गुप्ति ५. उत्सर्ग समिति-उत्सर्ग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। इन तीनों गुप्तियों का संयुक्त नाम 'प्रवचन-माता' या 'प्रवचन-मात' इन पांच समितियों का पालन करने वाला मुनि जीवाकुल है। (श्लो० १) संसार में रहता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता।' रत्नत्रयी (सम्यग्-ज्ञान, सम्यग्-दर्शन और सम्यग्-चारित्र) जिस प्रकार दृढ़ कवचधारी योद्धा बाणों की वर्षा होने को भी प्रवचन कहा जाता है। उसकी रक्षा के लिए पांच पर भी नहीं बींधा जा सकता, उसी प्रकार समितियों का सम्यग् समितियां और तीन गुप्तियां माता-स्थानीय हैं। अथवा प्रवचन पालन करने वाला मुनि साधु-जीवन के विविध कार्यों में (मुनि) के समस्त चारित्र के उत्पादन, रक्षण और विशोधन के प्रवर्तमान होता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता। ये आठों अनन्य साधन हैं अतः इन्हें 'प्रवचन-माता' कहा गया है।" गुप्ति का अर्थ है निवर्तन। वे तीन प्रकार की है इनमें प्रवचन (गणिपिटक द्वादशाङ्ग) समा जाता है। १. मनोगुप्ति-असत् चिन्तन से निवर्तन। इसलिए इन्हें 'प्रवचन-मात' भी कहा जाता है। (श्लो० ३)। २. वचनगुप्ति-असत् वाणी से निवर्तन। मन, वाणी और शरीर के गोपन, उत्सर्ग या विसर्जन को ३. कायगुप्ति-असत् प्रवृत्ति से निवर्तन। गुप्ति और सम्यग् गति, भाषा, आहार की एषणा, उपकरणों जिस प्रकार क्षेत्र की रक्षा के लिए बाड़, नगर की रक्षा का ग्रहण-निक्षेप और मल-मूत्र आदि के उत्सर्ग को समिति के लिए खाई या प्राकार होता है, उसी प्रकार श्रामण्य की कहा जाता है। गुप्ति निवर्तन है और समिति सम्यक् प्रवर्तन। सुरक्षा के लिए, पाप के निरोध के लिए गुप्ति है। प्रथम श्लोक में इनका पृथक-विभाग है किन्तु तीसरे श्लोक में महाव्रतों की सुरक्षा के तीन साधन हैंइन आठों को समिति भी कहा गया है। १. रात्रि-भोजन की निवृत्ति। समिति का अर्थ है सम्यक्-प्रवर्तन। सम्यक् और असम्यक् २. आठ प्रवचन-माताओं में जागरूकता। का मापदण्ड अहिंसा है। जो प्रवृत्ति अहिंसा से संवलित है वह ३. भावना (संस्कारपादान-एक ही प्रवृत्ति का पुनः पुनः समिति है। समितियां पांच हैं अभ्यास)। समिति-गमनागमन सम्बन्धी अहिंसा का इस प्रकार महाव्रतों की परिपालना समिति-गुप्ति-सापेक्ष विवेक। है। इनके होने पर महाव्रत सुरक्षित रहते हैं और न होने पर २. भाषा समिति-भाषा सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। असुरक्षित। १. दी उत्तराध्ययन सूत्र, पृष्ठ ३६५। ५. मूलराधना, ६।१२०० : २. समवायांग, समवाय ३६। एदांहि सदा जुत्तो, समिदीहिं जगम्मि विहरमाणे हु। ३. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ४५८ : हिंसादिहिं न लिप्पइ, जीवणिकायाउले साहू।। जाणगसरीरभविए तव्वइरित्ते अ भायणे दव्वं । ६. वही, ६।१२०२: भावंमि अ समिईओ मायं खलु पवयणं जत्थ ।। सरवासे वि पंडते, जह दढकवचो ण विज्झदि सरेहि। (ख) वही, गाथा ४५६ : तह समिदीहिं ण लिप्पई, साधू काएसु इरियंतो।। अट्ठसवि समिईसु अ दुवालसंगं समोअरइ जम्हा। ७. वही, ६१११८६: तम्हा पवयणमाया अज्झयणं होइ नायव्व।। छेत्तस्स वदी णयरस्स, खाइया अहव होइ पायारो। मूलाराधना, आश्वास ६, श्लोक ११८५; मूलाराधना दर्पण, पृष्ठ तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स ।। ११७२ : प्रवचनस्य रत्नत्रयस्य मातर इव पुत्राणां मातर इव वही, ६।११८५ : सम्यग्दर्शनादीनां अपायनिवारणपरायणास्तिस्मो गुप्तयः, पंचसमितयश्च। तेसिं चेव वदाणं, रक्ख8 रादिभोयणणियत्ती। अथवा प्रवचनस्य मुनेश्चारित्रमात्रस्योत्पादनरक्षणविशोधनविधानात् तास्तथा अट्ठप्पवयणमादाओ भावणाओ य सव्वाओ।। व्यपदिश्यन्ते। विजयोदया वृत्ति, पृष्ठ ११७२, : सत्यां रात्रिभोजननिवृत्ती प्रवचनमातृकासु भावनासु वा सतीषु हिंसादिव्यावृत्तत्वं भवति। न तास्वसतीषु इति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy