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________________ यज्ञीय १६. जो जोए बंभणो वुत्तो अग्गी वा महिओ जहा । सया कुसलसंदिट्ठ तं वयं बूम माहणं ।। २०. जो न सज्जइ आगंतुं पव्वयंतो न सोयई । रमए अज्जवयणमि तं वयं बूम माहणं ।। २१. जायरूवं जहामट्ठ निर्द्धतमलपावगं । रागहोसभयाईय तं वयं बूम माहणं ।। (तवस्सियं किसं दंतं अवचियमंससोणियं । सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तं वयं बूम माहणं । । ) २२. तसपाणे वियाणेत्ता संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेणं तं वयं बूम माहणं ।। २३. कोहा वा जइ वा हासा लोहा वा जइ वा भया । मुसं न वयई जो उ त वयं बूम माहणं ।। २४. चित्तमंतमचित्तं वा अप्पं वा जइ वा बहुं । न गेव्हड अदन्तं जो तं वयं बूम माहणं ।। २५. दिव्यमाणुसरिच्छ जो न सेवइ मेहणं । मणसा कायवक्केणं तं वयं बूम माहणं ।। २६. जहा पोमं जले जायं नोवलिप्पड़ वारिणा । एवं अलित्तो कामेहिं तं वयं बूम माहणं ।। Jain Education International ४०१ यो लोके ब्राह्मण उक्तः अग्निर्वा महितो यथा । सदा कुशलसंदिष्टं तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। यो न स्वजत्यागत्य प्रव्रजन्न शोचति । रमते आर्यवचने तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। जातरूपं यथामृष्टं पायनिमल रागदोषभयातीतं तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। ( तपस्विनं कृशं दान्तं अपचितमांसशोणितम् । सुव्रतं प्राप्तनिर्वाणं तं वयं ब्रूमो माहनम् । ।) त्रसप्राणिनो विज्ञाय संग्रहेण च स्थावरान् । यो न हिनस्ति त्रिविधेन तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। क्रोधाद्वा यदि वा हासात् लोभाड़ वा यदि वा भयात् मृषां न वदति यस्तु तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। चित्तवदचित्तं वा अल्पं वा यदि वा बहुम् । न हणात्यदत्तं यः तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। दिव्यमानुषतैरश्वं यो न सेवते मैथुनम् । मनसा कायवाक्येन तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। यथा पद्मं जले जातं नोपलिप्यते वारिणा । एवमलिप्तः कामैः तं वयं ब्रूमो माहनम् ।। अध्ययन २५ : श्लोक १६-२६ जो ब्राह्मण है वह अग्नि की भांति सदा लोक में पूजित है । उसे हम कुशल पुरुष द्वारा संदिष्ट (कहा हुआ) ब्राह्मण कहते हैं । "जो आने पर" आसक्त नहीं होता, जाने के समय शोक नहीं करता, जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।" “ अग्नि में तपा कर शुद्ध किए हुए" और घिसे हुए ७ " सोने की तरह जो विशुद्ध है तथा राग-द्वेष और भय से रहित है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" (जो तपस्वी है, कुश है, दांत है, जिसके मांस और शोणित का अपचय हो चुका है, जो सुव्रत है, जो शांति को प्राप्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं ।) " जो त्रस और पिण्डीभूत स्थावर जीवों को भलीभांति जान कर मन, वाणी और शरीर से उनकी हिंसा नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" “जो क्रोध, हास्य, लोभ या भय के कारण असत्य नहीं बोला, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" "जो सचित्त या अचित्त कोई भी पदार्थ, थोड़ा या अधिक कितना ही क्यों न हो, उसके अधिकारी के दिए बिना नहीं लेता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" "जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च संबंधी मैथुन का मन, वचन और काया से सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" "जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार काम के वातावरण में उत्पन्न हुआ जो मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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