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________________ उत्तरझयणाणि ६. सो एवं तत्थ पडिसिद्धो जायगेण महामुणी । न वि रुट्ठो न वि तुट्ठो उत्तमद्गवेसओ ।। १०. नन्नट्ठे पाणहेउ वा न वि निव्वाहणाय वा । तेसि विमोक्खणद्वाए इमं वयणमब्बवी ।। ११. नवि जाणसि वेयमु नवि जण्णाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं जँच जं च धम्माण वा मुहं ।। १२. जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव ब न ते तुमं वियाणासि अह जाणासि तो भण ।। १३. तस्सक्खेवपमोक्खं च अचयंती तहिं दिओ । सपरिसो पंजली होउं पुच्छई तं महामुनिं ।। १४. वेयाणं च मुहं बूहि बूहि जण्णाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं बूहि बूहि धम्माण वा मुहं ।। १५. जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य । एयं मे संसयं सव्वं साहू कहय पुच्छिओ ।। १६. अग्निहोत्तमुहा वेया जण्णट्टी वेयसां मुहं । नक्खत्ताण मुहं चंदो धम्माणं कासवो मुहं || १७. जहा चंदं गहाईया चिट्ठेति पंचलीउडा । वंदमाणा नमसंता उत्तमं मणहारिणो ।। १८. अजाणगा जन्नवाई विज्जामाहणसंपया। गूढा सज्झायतवसा भासच्छन्ना इवग्गिणो ।। Jain Education International ४०० स एवं तत्र प्रतिषिद्धः याजकेन महामुनिः । नापि रुष्टो नापि तुष्टः उत्तमार्थगवेषकः ।। नानार्थं पानहेतुं वा नापि निर्वाहणाय वा । तेषां विमोक्षणार्थम् इदं वचनमब्रवीत् ।। नापि जानासि वेदमुख नापि यज्ञानां यन्मुखम् । नक्षत्राणां मुखं यच्च यच्च धर्माणां वा मुखम् ।। ये समर्थाः समुद्धर्तुं परमात्मानमेव च । न तानू त्वं विजानासि अथ जानासि तदा भण ।। तस्याक्षेपप्रमोक्षं च अशक्नुवन् तत्र द्विजः । सपरिषत् प्रांजलिर्भूत्वा पृच्छति मं महामुनिम् ।। वेदानां मुखं ब्रूहि ब्रूहि यज्ञानां यन्मुखम् । नक्षत्राणां मुखं ब्रूहि ब्रूहि धर्माणां वा मुखम् ।। ये समर्थाः समुद्धर्तु परमात्मानमेव च । एतं मे संशयं सर्वं साधो ! कथय पृष्टः ।। अग्निहोत्रमुखा वेदाः यज्ञार्थी वेदसां मुखम् । नक्षत्राणां मुखं चन्द्रः धर्माणां काश्यपो मुखम् ।। यथा चन्द्र ग्रहादिकाः तिष्ठन्ति प्रांजलिपुटाः । वन्दमाना नमस्यन्तः उत्तमं मनोहारिणः ।। अज्ञकाः यज्ञवादिनः विद्यामाहनसम्पदाम् । गूढ़ा: स्वाध्यायतपसा भस्मच्छन्ना इवाग्नयः ।। अध्ययन २५ श्लोक ६-१८ वह महामुनि यज्ञकर्ता के द्वारा प्रतिषेध किये जाने पर न रुष्ट ही हुआ और न तुष्ट ही हुआ, क्योंकि वह उत्तम - अर्थ - मोक्ष की गवेषणा में लगा हुआ था। न अन्न के लिए, न पानक के लिए और न किसी जीवन निर्वाह के लिए, किन्तु उनकी विमुक्ति के लिए मुनि ने इस प्रकार कहा " तू वेद के मुख को नहीं जानता। यज्ञ का जो मुख है, उसे भी नहीं जानता । नक्षत्र का जो मुख है और धर्म का जो मुख है, उसे भी नहीं जानता ।"" "जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ है, उन्हें तू नहीं जानता। यदि जानता है तो बता ।" मुनि के प्रश्न का उत्तर देने में अपने को असमर्थ पाते हुए द्विज ने परिषद् सहित हाथ जोड़ कर उस महामुनि से पूछा “तुम कहो वेदों का मुख क्या है ? यज्ञ का जो मुख है वह तुम्ही बतलाओ। तुम कहो नक्षत्रों का मुख क्या है ? धर्मों का मुख क्या है, तुम्ही बतलाओ ।" "जो अपना और पराया उद्धार करने में समर्थ हैं। (उनके विषय में तुम्ही को) हे साधु यह मुझे सारा संशय है, तुम मेरे प्रश्नों का समाधान दो ।" "वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है और धर्मों का मुख काश्यप ऋषभदेव है।"१३ "जिस प्रकार चन्द्रमा के सन्मुख ग्रह आदि हाथ जोड़े हुए, वन्दना - नमस्कार करते हुए और विनीत भाव से मन का हरण करते हुए रहते हैं उसी प्रकार भगवान् ऋषभ के सम्मुख सब लोग रहते थे ।” यज्ञवादी ब्राह्मण की सम्पदा-विद्या से अनभिज्ञ हैं। वे बाहर में स्वाध्याय और तपस्या से गूढ़-उपशांत बने हुए हैं और भीतर में राख से ढकी अग्नि की भांति प्रज्वलित हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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