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________________ उत्तरज्झयणाणि १२० अध्ययन ६ : श्लोक ७-१५ “परिग्रह नरक है"१५—यह देखकर वह एक तिनके को भी अपना बनाकर न रखे। अहिंसक या करुणाशील मुनिअपने पात्र में गृहस्थ द्वारा प्रदत्त भोजन करे। ७. आयाणं नरयं दिस्स नायएज्ज तणामवि। दोगुंछी अप्पणो पाए दिन्नं भुंजेज्ज भोयणं ।। ८. इहमेगे उ मन्नति अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ताणं सव्वदुक्खा विमुच्चई।। ६. भयंता अकरेंता य बंधमोक्खपइण्णिणो। वायाविरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ।। आदानं नरकं दृष्ट्वा नाददीत तृणमपि। जुगुप्सी आत्मनः पात्रे दतं भुंजीत भोजनम्।। इहैके तु मन्यन्ते अप्रत्याख्याय पापकम् । आर्य विदित्वा सर्व-दुःखाद् विमुच्यते।। इस संसार में कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पापों का त्याग किये बिना ही तत्व को जानने मात्र से जीव सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। भणन्तोऽकुर्वन्तश्च बन्धमोक्षप्रतिज्ञावन्तः। वागवीर्यमात्रेण समाश्वासयन्त्यात्मकम् ।। “ज्ञान से ही मोक्ष होता है"-जो ऐसा कहते हैं, पर उसके लिए कोई क्रिया नहीं करते, वे केवल बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्त की स्थापना करने वाले हैं। वे केवल वाणी के वीर्य (वाचालता) से अपने आपको आश्वस्त करते हैं। विविध भाषाएं त्राण नहीं होती। विद्या का अनुशासन२० भी कहां त्राण देता है ? (जो इनको त्राण मानते हैं वे) अपने आपको पण्डित मानने वाले अज्ञानी मनुष्य प्रायः कर्मों द्वारा विषाद को प्राप्त हो १०.न चित्ता तायए भासा कओ विज्जाणुसासणं? विसन्ना पावकम्मे हिं बाला पंडियमाणिणो।। न चित्रा त्रायते भाषा कुतो विद्यानुशासनम् ? विषण्णाः पापकर्मभिः बालाः पण्डितमानिनः।। जो कोई मन, वचन और काया से शरीर, वर्ण और रूप में सर्वशः आसक्त होते हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। वे इस अनन्त संसार में जन्म-मरण के लम्बे मार्ग को प्राप्त किए हुए हैं। इसलिए सब दिशाओं (दृष्टिकोणों) को देखकर मुनि अप्रमत्त होकर विचरे । ११.जे केई सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो। मणसा कायवक्केणं सव्वे ते दुक्खसंभवा।। १२.आवन्ना दीहमद्धाणं संसारंमि अणंतए। तम्हा सव्वदिसं पस्स अप्पमत्तो परिव्वए।। १३.बहिया उड्डमादाय नावकंखे कयाइ वि। पुव्वकम्मखयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे।। १४.विविच्च कम्मुणो हेउं कालकंखी परिव्वए। मायं पिंडस्स पाणस्स कडं लभ्रूण भक्खए।। ये केचित् शरीरे सक्ताः वर्णे रूपे च सर्वशः। मनसा कायवाक्येन सर्वे ते दुःखसंभवाः।। आपन्ना दीर्घमध्वानं संसारेऽनन्तके। तस्मात् सर्वदिशो दृष्ट्वा अप्रमत्तः परिव्रजेत्।। बहिरू मादाय नावकाक्षेत् कदाचिदपि। पूर्वकर्मक्षयार्थ इमं देहं समुद्धरेत्।। विविच्च कर्मणो हेतुं कालकांक्षी परिव्रजेत्। मात्रां पिण्डस्य पानस्य कृतं लब्ध्वा भक्षयेत् ।। बाह्य-शरीर से भिन्न ऊर्ध्व-आत्मा है इसे स्वीकार कर किसी प्रकार की आकांक्षा न करे। पूर्व कर्मों के क्षय के लिए ही इस शरीर को धारण करे। कर्म के हेतुओं का विवेचन (विश्लेषण या पृथक्करण) कर मुनि मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ विचरे। संयम-निर्वाह के लिए आहार और पानी की जितनी मात्रा आवश्यक हो उतनी गृहस्थ के घर में सहज निष्पन्न भोजन से प्राप्त कर आहार करे। १५.सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए। पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए।। सन्निधिं च न कुर्वीत लेपमात्रया संयतः। पक्षी पात्रं समादाय निरपेक्षः परिव्रजेत् ।। संयमी मुनि पात्रगत लेप को छोड़कर अन्य किसी प्रकार के आहार का संग्रह न करे। पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ जाता है वैसे ही मुनि अपने पात्रों को साथ ले, निरपेक्ष हो, परिव्रजन करे।' Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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