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________________ इस अध्ययन का नाम 'सम्मत्तपरक्कमे''सम्यक्त्वपराक्रम' है। इससे सम्यक्त्व में पराक्रम करने की दिशा मिलती है, इसलिए यह 'सम्यक्त्व - पराक्रम' गुण- निष्पन्न नाम है। निर्युक्तिकार के अनुसार 'सम्यक्त्व- पराक्रम' आदि-पद में है, इसलिए इसका नाम 'सम्यक्त्व - पराक्रम' हुआ है।' उनके अभिमत में इसका गुण - निष्पन्न नाम 'अप्रमाद श्रुत' है। कुछ आचार्य इसे 'वीतराग - श्रुत' भी कहते हैं। ' प्रस्तुत अध्ययन में ७१ प्रश्न और उत्तर हैं। उनमें साधना-पद्धति का बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। साधना के सूत्रों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है १. संवेग ( २ ) * २. निर्वेद (३) ३. 9. धर्म - श्रद्धा ( ४ ) ४. शुश्रूषा सेवा (५), वैयावृत्त्य (४४) ५. आलोचना ( ६ ) ६. निन्दा ( ७ ) ७. गर्हा ( ८ ) ८. आवश्यक कर्म सामायिक (६), चतुर्विंशतिस्तव (१०), बन्दना (११) प्रतिक्रमण (१२), कायोत्सर्ग (१३), प्रत्याख्यान (१४), स्तव स्तुति (१५) ६. प्रायश्चित्त ( १७ ) १०. क्षमा-याचना (१८) ११. स्वाध्याय (१६) - याचना ( २० ), प्रतिप्रश्न (२१) परिवर्तना (२२), अनुप्रेक्षा (२३), धर्म - कथा (२४), श्रुताराधना (२५), काल प्रतिलेखना (१६) आमुख १२. मानसिक अनुशासन एकाग्र - मन- सन्निवेश (२६), मनो-गुप्ति (५४), मन- समाधारणता (५७), भाव- सत्यता (५१) १३. वाचिक अनुशासन- वचो - गुप्ति (५५), वचन - समाधारणता (५८) १४. कायिक अनुशासन करण- सत्यता (५२), काय गुप्ति (५६), चाय - - उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ५०३ : आयाणपएणेयं सम्मतपरक्कमंति अज्झयणं । २. वही, गाथा ५०६ : सम्मत्तमप्पमाओ, इहमज्झयणमि वण्णिओ जेणं । तम्हेयं अज्झयणं, णायव्यं अप्पमायसुअं ।। Jain Education International समाधारणता (५६) १५. योग - सत्य (५३) १६. कषाय-विजय- क्रोध - विजय (६८), मान - विजय (६६), माया - विजय (७०), लोभ-विजय (७१), धान्ति (७७), मुक्ति (४६) आर्जव (४९), मार्दव (५०) वीतरागता (४६), राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन-विजय ( ७२ ) ४. ५. १७. सम्पन्नता सर्वगुण सम्पन्नता (४५), ज्ञान-सम्पन्नता (६०), दर्शन - सम्पन्न्ता (६१), चारित्र - सम्पन्नता (६२) १८. इन्द्रिय - निग्रह श्रोत्रेन्द्रिय - निग्रह (६३), चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह (६४), प्राणेन्द्रियनिग्रह (६५), रसनेन्द्रिय निग्रह (६६), स्पर्शनेन्द्रिय - निग्रह (६७) । १६. प्रत्याख्यान सम्भोज-प्रत्याख्यान (३४), उपधि- प्रत्याख्यान (३५), आहार - प्रत्याख्यान (३६), कषाय- प्रत्याख्यान (३७), योग - प्रत्याख्यान (३८), शरीर - प्रत्याख्यान (३६), सहाय- प्रत्याख्यान (४०), भक्त- प्रत्याख्यान ( ४१ ), सद्भाव - प्रत्याख्यान (४२) २०. संयम (२७) २१. तप (२१) २२. विशुद्धि (२६) २३. सुखासक्ति का त्याग (३०) २४. अप्रतिबद्धता (३१) २५. विविक्तशयनाशन (३२) २६. विनिवर्तना (३३) २७. प्रतिरूपता (४३) जिस प्रकार पातञ्जल योग दर्शन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, ईश्वर-प्रणिधान, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और संयम के परिणाम बतलाए गए हैं, उसी प्रकार यहां संवेग आदि के परिणाम बतलाए गए हैं। संवेग के परिणाम : (१) अनुत्तर धर्म - श्रद्धा की प्राप्ति । ३. वही, गाथा ५०३ : - ..... एगे पुण वीयरागसुयं । कोष्ठकों के अन्दर के अंक सूत्र संख्या के सूचक हैं। पातञ्जल योग दर्शन २।३५-४३, ४५, ४७-४६, ५३, ५५ ३५, १६-५५। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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