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चित्र-संभूतीय
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अध्ययन १३ : श्लोक ८-१६ ८. कम्मा नियाणप्पगडा कर्माणि निदानप्रकृतानि (मुनि-) “राजन् ! तू ने निदानकृत कर्मों का चिन्तन
तुमे राय! विचिंतिया। त्वया राजन् ! विचिन्तितानि। किया। उनके फल-विपाक से हम बिछुड़ गये।" तेसिं फलविवागेण
तेषां फलविपाकेन विप्पओगमुवागया।। विप्रयोगमुपागतौ।। ६. सच्चसोयप्पगडा
सत्यशौचप्रकृतानि
(चक्री—) “चित्र ! मैंने पूर्वजन्म में सत्य और शौचमय कम्मा मए पुरा कडा। कर्माणि मया पुराकृतानि। शुभ अनुष्ठान किये थे। आज मैं उनका फल भोग ते अज्ज परिभुंजामो तान्यद्य परिभुंजे
रहा हूं। क्या तू भी वैसा ही भोग रहा है ?" किं नु चित्ते वि से तहा?|| किन्नु चित्रोऽपि तानि तथा?।। १०.सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं सर्व सुधीर्ण सफल नराणां (मुनि-) “मुनष्यों का सब सुचीर्ण सफल होता है।
कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि। कृतेभ्यः कर्मभ्यो न मोक्षोऽस्ति। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना मोक्ष (उससे अत्थेहि कामेहि य उत्तेमेहिं अर्थैः कामैश्चोत्तमैः
छुटकारा) नहीं होता। मेरी आत्मा उत्तम अर्थ और आया ममं पुण्णफलोववेए।। आत्मा मम पुण्यफलोपेतः।। कामों के द्वारा पुण्य-फल से युक्त है।" ११.जाणासि संभूय! महाणुभागं जानासि सम्भूत ! महानुभागं “संभूत ! जिस प्रकार तू अपने को महानुभाग
महिड्ढियं पुण्णफलोववेयं। महर्दिकं पुण्यफलोपेतम्। (अचिंत्य-शक्ति) सम्पन्न, महान् ऋद्धिमान् और चित्तं पि जाणाहि तहेव रायं! चित्रमपि जानीहि तथैव राजन् ! पुण्य-फल से युक्त मानता है, उसी प्रकार चित्र को भी
इड्ढी जुई तस्स वि य प्पभूया।। ऋद्धिर्युतिस्तस्यापि च प्रभूता।। जान। राजन् ! उसके भी प्रचुर ऋद्धि और द्युति थी।" १२.महत्थरूवा वयणप्पभूया महार्थरूपा वचनाऽल्पभूता "स्थविरों ने जन समुदाय के बीच अल्पाक्षर और
गाहाणुगीया नरसंघमज्झे। गाथाऽनुगीता नरसंघमध्ये। महान् अर्थ वाली जो गाथा गाई, जिसे शील और श्रुत जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया या भिक्षवः शीलगुणोपेताः से सम्पन्न भिक्षु बड़े यत्न से अर्जित करते हैं, उसे
इहऽज्जयंते समणो म्हि जाओ।। इहार्जयन्ति श्रमणोऽस्मि जातः।। सुनकर मैं श्रमण हो गया। १३.उच्चोयए महु कक्के य बंभे उच्चोदयो मधुः कर्कश्च ब्रह्मा (चक्री-) “उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्मा
पवेइया आवसहा य रम्मा। प्रवेदिता आवसथाश्च रम्याः। ये प्रधान प्रासाद' तथा दूसरे अनेक रम्य प्रासाद हैं। इमं गिहं चित्त! धणप्पभूयं इदं गृहं चित्र ! प्रभूतधनं चित्र! पंचाल देश की विशिष्ट वस्तुओं से युक्त और
पसाहि पंचालगुणोववेयं ।। प्रशाधि पञ्चालगुणोपेतम्।। प्रचुर धन से पूर्ण यह घर है इसका तू उपभोग कर।" १४.नट्टेहि गीएहि य वाइएहिं नाट्यैीतैश्च वादित्रैः “हे भिक्षु ! तू नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ
नारीजणाइं परिवारयंतो। नारीजनान् परिवारयन्। नारी-जनों को परिवृत करता हुआ इन भोगों को भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिक्खू! भुच भोगानिमान् भिक्षो! भोग। यह मुझे रुचता है। प्रव्रज्या वास्तव में ही
मम रोयई पव्वज्जा हु दुक्खं ।। मह्य राचत प्रमज्या खलु दुःखम्।। कष्टकर १५.तं पुवनेहेण कयाणुरागं तं पूर्वस्नेहेन कृतानुरागं धर्म में स्थित और उस (राजा) का हित चाहने वाले
नराहिवं कामगुणेस गिद्धं। नराधिपं कामगुणेषु गृद्धम्। चित्र मुनि ने पूर्वभव के स्नेह-वश अपने प्रति धम्मस्सिओ तस्स हियाणुपेही धर्माश्रितस्तस्य हितानुप्रेक्षी अनुराग रखने वाले कामगुणों में आसक्त राजा से
चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था ।। चित्र इदं वचनमुदाहार्षीत्।। यह वचन कहा१६.सव्वं विलवियं गीयं
सर्व विलपितं गीतं
सब गीत विलाप हैं, सब नाट्य विडम्बना हैं, सब सव्वं नट्ट विडंबियं। सर्वं नाट्यं विडम्बितम्। आभरण भार हैं और सब काम-भोग दुःखकर हैं।" सव्वे आभरणा भारा
सर्वाण्याभरणानि भाराः सव्वे कामा दुहावहा।। सर्वे कामा दुःखावहाः ।।
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