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________________ सम्यक्त्व-पराक्रम ४९१ अध्ययन २६ : सूत्र १८-२० टि० २५-२८ सम्यक्त्व अधिक उपयुक्त है। प्रायश्चित्त तपस्यामय होता है, बार-बार दोहराना। इसलिए तप उसका परिणाम नहीं हो सकता।' चारित्र (४) अनुप्रेक्षा-परिचित और स्थिर विषय पर चिन्तन (आचार-शुद्धि) इसी सूत्र में आगे प्रतिपादित है। शेष ज्ञान करना। और दर्शन (सम्यक्त्व) दो रहते हैं। उनमें दर्शन 'मार्ग' है और (५) धर्मकथा-स्थिरीकृत और चिन्तित विषय का उपदेश उसकी विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है, इसलिए वह 'मार्ग-फल' करना। २०वें से २४वें सूत्र तक स्वाध्याय के इन्हीं पांच प्रकारों आचार्य वट्टकेर ने श्रद्धान (दर्शन) को प्रायश्चित्त का के परिणाम बतलाए गए हैं। एक प्रकार माना है। वृत्तिकार वसुनन्दि ने उसके दो अर्थ २७. तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता है (तित्थधम्म अवलंबई) किए हैं—(१) तत्त्वरुचि का परिणाम और (२) क्रोध आदि का शान्त्याचार्य ने तीर्थ के दो अर्थ किए हैं-गणधर और परित्याग। प्रवचन। भगवती में चतुर्विध संघ को 'तीर्थ' कहा गया है। सूत्रकार का आशय यह है कि प्रायश्चित्त से दर्शन की गौतम ने कहा---"भंते! तीर्थ को तीर्थ कहा जाता है या विशिष्ट विशुद्धि होती है। इसलिए ज्ञान और दर्शन को तीर्थंकर को तीर्थ कहा जाता है ?" प्रायश्चित्त भी माना जा सकता है और परिणाम भी। भगवान् ने कहा-“गौतम! अर्हत् तीर्थ नहीं होते, वे २५. (सूत्र १८) तीर्थंकर होते हैं। चतुर्वर्ण श्रमण संघ-साधु, साध्वी, श्रावक सत्य की प्राप्ति उसी व्यक्ति की होती है, जो अभय होता और श्राविकाओं का संघ तीर्थ कहलाता है।" है। भय के हेतु है-राग और द्वेष । उनसे वैर-विरोध बढ़ता आवश्यक नियुक्ति में प्रवचन का एक नाम तीर्थ है। है। वैर-विरोध होने पर आत्मा की सहज प्रसन्नता नष्ट हो इस प्रकार तीर्थ के तीन अर्थ हुए। इनके आधार पर तीर्थ धर्म जाती है। सब जीवों के साथ मैत्री-भाव नहीं रहता। मन भय के तीन अर्थ होते हैंसे भर जाता है। इस प्रकार व्यक्ति सत्य से दूर हो जाता है। (१) गणधर का धर्म-शास्त्र-परम्परा को अविच्छिन्न जो सत्य को पाना चाहता है, उसके मन में राग-द्वेष की रखना।" गांठ तीव्र नहीं होती। वह सबके साथ मैत्री-भाव रखता है। (२) प्रवचन का धर्म-स्वाध्याय करना ।१२ उसकी आत्मा सहज प्रसन्नता से परिपूर्ण होती है। उससे (३) श्रमण-संघ का धर्म । प्रमादवश कोई अनुचित व्यवहार हो जाता है तो वह तुरंत यहां अध्यापन के प्रकरण में प्रथम अर्थ ही उपयुक्त उसके लिए अनुताप प्रकट कर देता है—क्षमा मांग लेता है। लगता है। जिस व्यक्ति में अपनी भूल के लिए अनुताप व्यक्त करने की तीर्थ शब्द की विशेष जानकारी के लिए देखिएक्षमता होती है, उसी में सहज प्रसन्नता, मैत्री और अभय- विशेषावश्यक भाष्य, गाथा १०३२-१०५१। ये सभी विकसित होते हैं। २८. कर्मों और संसार का अन्त करने वाला (महानिज्जरे २६. (सूत्र १९) महापज्जवसाने) स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं-- यह वाक्यांश आत्मा की प्रकृष्ट विशुद्धि का द्योतक है। (१) वाचना–अध्यापन करना। कर्मों का विपुल मात्रा में क्षीण होना महानिर्जरा है। महापर्यवसान (२) प्रतिपृच्छा-अज्ञात विषय की जानकारी या ज्ञात के दो अर्थ हैं-समाधिमरण और अपुनर्मरण। जिस व्यक्ति के विषय की विशेष जानकारी के लिए प्रश्न करना। महानिर्जरा होती है, वह समाधिमरण को प्राप्त होता है। यदि (३) परिवर्तना-परिचित विषय को स्थिर रखने के लिए संपूर्ण कर्मों की निर्जरा हो जाती है तो वह अपुनर्मरण को यहा अध्या १. मूलाचार, पंचाचाराधिकार, गाथा १६४ : ६. भगवई, २०७४ : तित्थं भंते ! तित्थं ? तित्थगरे तिथं ? गोयमा ! पायच्छित्तं ति तवो, जेण विसुज्झदि हु पुवकयपावं। अरहा ताव नियमं तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णे समणसंघे, तं २. वही, गाथा १६५। जहा-समणा समणीओ सावया सावियाओ। ३. वही, गाथा १६५ वृत्ति : श्रद्धानं तत्त्वरुचौ परिणामः क्रोधादिपरित्यागो १०. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १२४ : वा। सुय धम्म तित्थ मग्गो, पावयणं पवयणं च एगट्ठा। ४. तुलना--योग-दर्शन, समाधि-पाद ३३ : मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःख- सुत्तं तंतं गंधो, पाढो सत्थं च एगट्ठा।। पुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्। ११. बृहबृत्ति, पत्र ५८४ : तीर्थमिह गणधरस्तस्य धर्म:-आचारः ५. उत्तरज्झयणाणि, ३०३४। श्रुतधर्मप्रदानलक्षणस्तीर्थधर्मः।। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८४ : वाचना-पाठनम्। १२. वही, पत्र ५८४ : यदि वा तीर्थ-प्रवचन श्रुतमित्यर्थस्तद्धर्म:७. वही, पत्र ५८४ : परावर्त्तना-गुणनम्। स्वाध्यायः । ८. वही, पत्र ५८४ : अनुप्रेक्षा–चिन्तनिका। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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