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________________ उत्तरज्झयणाणि ४९२ अध्ययन २६ : सूत्र २१-२५ टि० २६-३६ प्राप्त होता है, जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। वृत्तिकार ने अनुप्रेक्षा का अर्थ इस प्रकार किया है। - __ स्थानांग सूत्र के अनेक प्रसंगों पर इसका प्रयोग प्राप्त अर्थ का विस्मरण न हो इसलिए अर्थ का बार-बार चिन्तन होता है करना। १. मनोरथत्रयी करने वाला श्रमण तथा श्रमणोपासक अनुप्रेक्षा के छह लाभ निर्दिष्ट हैं-- . महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। १. कर्म के गाढ बंधन का शिथिलीकरण । (ठाणं ३।४६६,४६७)। २. दीर्घकालीन स्थिति का अल्पीकरण। २. अग्लानवृत्ति से सेवा करने वाला श्रमण महानिर्जरा ३. तीव्र विपाक का मंदीकरण। और महापर्यवसान वाला होता है। ४. प्रदेश-परिमाण का अल्पीकरण। (ठाणं ५।४४,४५) ५. आगत वेदनीय कर्म का उपचय न होना। २९. सूत्र, अर्थ और उन दोनों से संबंधित (सुत्तत्थ ६. संसार का अल्पीकरण। तदुभयाई) असातवेदनीय कर्म के बंध का कारण है-दूसरों को आगम तीन प्रकार के होते हैं.-सत्रागम. अर्थागम और दुःख दना, सताना अथवा दूसरों के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार गगम और अर्थागम का करना। तत्त्व, पदार्थ के स्वभाव और अनित्यत्व आदि की संयुक्त उच्चारण ही है। जिस आगम की रचना में सूत्र और अनुप्रेक्षा करने से करुणा की चेतना जागती है, आत्मीपम्य वृत्ति-दोनों का समावेश होता है, उस आगम को तदुभयागम दृष्टि का निर्माण होता है, किसी भी प्राणी को दुःख देने की कहा गया है। वृत्ति समाप्त हो जाती है। इसलिए अनुप्रेक्षा करने वाले व्यक्ति ३०. कांक्षा मोहनीय कर्म (कंखामोहणिज्ज कम्म) के असातवेदनीय कर्म का बंध पुनः-पुनः नहीं होता।' शान्त्याचार्य ने कांक्षा मोहनीय का अर्थ 'अनाभिग्रहिक ३३. लंबे मार्ग वाली (दीहमद्ध) मिथ्यात्व' किया है।' अभयदेव सूरि के अनुसार इसका अर्थ यहां 'मकार' अलाक्षणिक है। मूल शब्द है-दीहद्धं-दीर्घाद्धं । है-मिथ्यात्व मोहनीय। इसके दो अर्थ हैं--दीर्घकाल तथा लंबा मार्ग। आगमों में सत्य की व्याख्या करने वाले अनेक मतवाद हैं। उनके 'अद्धा' शब्द के दोनों अर्थ प्राप्त हैं--काल और मार्ग। जाल में फंसकर मनुष्य मिथ्या दृष्टिकोणों की ओर झुक जाता ३४. चार अन्तों वाली (चाउरतं) है। इस झुकाव का मुख्य कारण कांक्षा मोहनीय कर्म होता है। वृत्तिकार ने अन्त का अर्थ---अवयव किया है। संसार-रूपी विशद जानकारी के लिए देखिए-भगवती, १३ । अटवी के चार अवयव हैं-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । ३१. व्यंजनलब्धि को (वंजणलद्धि) ३५. प्रवचन (पवयण) बृहद्वृत्ति में व्यंजनलब्धि की कोई व्याख्या नहीं है। प्रवचन का अर्थ है-आगम। संघ अथवा तीर्थ आगम 'वंजण-लद्धि च'-इस 'च' कार को वहां ‘पदानुसारिता-लब्धि' के आलम्बन से चलता है, इसलिए उपचार से आगम को भी का सूचक बतलाया गया है। एक पद के अनुसार शेष पदों की प्रवचन कहा गया है। प्राप्ति हो जाए, उस शक्ति का नाम 'पदानुसारिता-लब्धि' है। विशेष विवरण के लिए देखें-२८।३१ का टिप्पण। इसी प्रकार एक व्यंजन के आधार पर शेष व्यंजनों को प्राप्त ३६. (सूत्र २५) करने वाली क्षमता का नाम 'व्यंजनलब्धि' होना चाहिए। श्रुत की आराधना के दो फल बतलाए गए हैं.-अज्ञान ३२. अनुप्रेक्षा (अर्थ-चिन्तन) से (अणुप्पेहाए) का क्षय और संक्लेश का अभाव। व्यक्ति जब श्रुत की अनुप्रेक्षा के अनेक अर्थ हैं--(१) तत्त्व का चिन्तन आराधना करता है तब उसके सारे संशय मिट जाते हैं. करना, (२) ज्ञात अर्थ का अभ्यास करना, (३) अर्थ का अज्ञान नष्ट हो जाता है। क्योंकि निरन्तर स्वाध्याय करते रहने चिंतन करना, (3) वस्तु के स्वभाव का बार-बार चिंतन । से तथा शब्दों की मीमांसा और विमर्श करते रहने से विशिष्ट करना। तत्त्वों की उपलब्धि होती है, जानकारियां बढ़ती हैं। १. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८४ : काक्षामोहनीयं कर्म अनभिग्रहिकमिध्यात्वरूपम्। २. भगवती, १३ वृत्ति : मोहयतीति मोहनीय कर्म, तच्च चारित्रमोहनीयमपि भवतीति विशेष्यते--काङ्क्षा-अन्यान्यदर्शनग्रहः उपलक्षणत्वाच्चास्य शंकादिपरिग्रहः, ततः काक्षाया मोहनीय काङ्क्षामोहनीयम्- मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८४ : चशव्दाद् व्यञ्जनसमुदायात्मकत्वाद्वा पदस्य तल्लब्धि च पदानुसारितालक्षणामुत्पादयति। ४. वही, पत्र ५८४ : सूत्रवदर्थऽपि संभवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षा। ५. भगवई, ८।४२३ । ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ५८५ : दीहमद्ध ति मकारोऽलाक्षणिकः दीर्घाद्धं दीर्घकालं, दीर्घोवाऽध्या-तत्परिभ्रमणहेतुः कर्मरूपो मार्गों यस्मिन्। ७. वही, पत्र ५८५ : चत्वार:-चतुर्गतिलक्षणा अन्ताः-अवयवा यस्मिस्तच्चतुरन्तं संसारकांतारम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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