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________________ चतुरंगीय में समर्थ, आठ प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त । तत्त्वार्थवार्तिक में एक साथ अनेक आकार वाले रूप निर्माण की शक्ति को कामरूपीत्व कहा है। चूर्णिकार ने इसका संस्कृत रूप 'कामरूपविकुर्विणः ' और शान्त्याचार्य तथा नेमिचन्द्र ने 'कामरूपविकरणाः' दिया है। 'विकुर्विणः' प्राकृत का ही अनुकरण है। २८. सैकड़ों पूर्ववर्षों तक असंख्य काल तक (पुब्बा वाससया बहू) ८४ लाख को ८४ लाख से गुणन करने पर जो संख्या प्राप्त होती है उसे पूर्व कहा जाता है। सत्तर लाख छप्पन हजार करोड़ वर्षों - ७०५६०००००००००- को पूर्व कहा गया है। बहु अर्थात् असंख्य । असंख्य पूर्व या असंख्य सौ वर्षों तक । इसका तात्पर्य है पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक। देवों की कम से कम इतनी स्थिति तो होती ही है। मुनि पूर्वजीवी या शतवर्षजीवी होते हैं इसलिए उन्हीं के द्वारा उनका माप बतलाया गया है।* २९. (श्लोक १६-१८) ७७ अध्ययन ३ : श्लोक १६-१८ टि० २८,२६ हैं—निवास और गति जिसमें रहा जाए उसको क्षेत्र कहा जाता है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार ग्राम, आराम आदि क्षेत्र कहलाते हैं। जहां अनाज उत्पन्न होता है, वह भी क्षेत्र कहलाता है । उसके तीन प्रकार हैं सोलहवें श्लोक में कहा गया है कि वे देव मनुष्य योनि में दस अंगों वाली भोग- सामग्री से युक्त होते हैं। वे दस अंग इस प्रकार हैं (१) चार कामस्कन्ध | (२) मित्रवान् । (२) ज्ञातिमान् । (६) नीरोग । (७) महाप्रज्ञ । (८) विनीत । (E) यशस्वी । (४) उच्चगोत्र । (५) वर्णवान्। (१०) सामर्थ्यवान्। चार कामस्कन्धों का निरूपण सतरहवें श्लोक में और शेष नौ अंगों का उल्लेख अट्ठारहवें श्लोक में है। चत्तारि कामखंधाणी 'काम-स्कन्ध' का अर्थ है-मनोज्ञ शब्दादि के हेतुभूत पुद्गल समूह अथवा विलास के हेतुभूत पुद्गल समूह। वे चार हैं- ( १ ) क्षेत्र वास्तु, (२) हिरण्य, (३) पशु, (४) दास - पौरुष । क्षेत्र शब्द 'क्षि' धातु से बना है। उस धातु के दो अर्थ १. (क) सुखबोधा, पत्र ७७: 'कामरूपविकरणाः' यथेष्टरूपादिनिर्वर्त्तशक्तिसमन्विताः । (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १०१ : अष्टप्रकारैश्वर्ययुक्ता इत्यर्थः । २. तत्त्वार्थवार्तिक ३।३६, पृ. २०३ : युगपदनेकाकारूपविकरणशक्तिः कामरूपित्वमिति । ३. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १०१ काम्यंते कमनीया वा कामाः, रोचते रोचयति वा रूपं कामतो रूपाणि विकुर्वितुं शीलं येषां त इमे कामरूपविकुर्विणः । (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८७ 'कामरूवविउब्विणो' त्ति सूत्रत्वात्कामरूपविकरणाः । (ग) सुखबोधा, पत्र ७७ । ४. बृहद्वृत्ति, पत्र १८७ पूर्वाणि - वर्षसप्ततिकोटिलक्षषट्पंचशत्कोटिसहस्रपरिमितानि बहूणि, जघन्यतोऽपि पल्योपमस्थितित्वात्, तत्रापि च तेषामसङ्ख्येयानामेव सम्भवात् एवं वर्षशतान्यपि बहूनि पूर्ववर्षशतायुषामेव Jain Education International वास्तु का अर्थ है-- अगार-गृह । चूर्णिकार ने उसके तीन मेद किए है (१) सेतुक्षेत्र-जहां सफल सिंचाई से होती है। (२) केतुक्षेत्र-जहां फसल वर्षा से होती है । (३) सेतुकेतुक्षेत्र जहां ईख आदि सिंचाई और वर्षा दोनों से उत्पन्न होते हैं। (१) खात, (२) उच्छ्रित, (३) खातोति। उनकी व्याख्या के अनुसार भूमिगृह को सेतु, ऊंचे प्रासाद को केतु और उभयगृह (भूमिगृह के ऊपर के प्रासाद) को सेतु-केतु कहा जाता है यही अर्थ खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रित का है। (१) सेतुवास्तु, (२) केतुवास्तु, (३) सेतुकेतुवास्तु । अथवा शान्त्याचार्य और नेमिचन्द्र ने दूसरे विकल्प का उल्लेख किया है। अर्थ में तीनों एक मत हैं। पौरुष का अर्थ है- कर्मकर और दास का अर्थ है--- खरीदा हुआ और मालिक की सम्पत्ति समझा जाने वाला व्यक्ति -गुलाम । उसके जीवन पर स्वामी का पूर्ण अधिकार होता था। अपनी जन्मजात दास्य स्थिति को बदलना उसके वश में नहीं होता था और न वह सम्पत्ति का स्वामी हो सकता था। दास और नौकर-चाकर में यही अन्तर है कि नौकर-चाकर पर स्वामी का पूर्ण अधिकार नहीं होता, वह स्वामी की सम्पत्ति नहीं समझा जाता और वह अनिश्चित काल के लिए वेतन पर रखा जाता है । निशीर्थ चूर्णि में छह प्रकार के दास बतलाए गए हैं(१) परम्परागत । (२) खरीदकर बनाया हुआ । ७. चरणयोग्यत्वेन विशेषतो देशनौचित्यमिति ख्यापनार्थमित्थमुपन्यास इति । ५. सुखबोधा, पत्र ७७ : कामाः - मनोज्ञशब्दादयः तद्धेतवः स्कंधा:तत्तत्पुद्गलसमूहाः कामस्कंधाः । ६. बृहद्वृत्ति पत्र १८८ क्षि निवासगत्योः' क्षियन्ति निवसन्त्यस्मिन्निति क्षेत्रम् - ग्रामारामादि । उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १०१ तत्र क्षेत्र सेतुं केतुं वा, सेतुं केतुं वा, सेतुं रहट्टादि, केतुं वरिसेण निप्फज्जते इक्ष्वादि सेतुं केतुम् । : उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. १०१ वत्युंसि सेतुं भूमिधरादि, केतुं यदभ्युच्छ्रितं प्रासादाद्यं, उभयथा गृहं सेतुकेतुं भवति, अथवा वत्युं खायं ऊसियं खातूसियं खातं भूमिधरं ऊसितं पासाओ खातूसितं भूमिधरोवारि पासादो । ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १८६८८ तथा वसन्त्यस्मिन्निति वास्तु-खातोच्छ्रितोभयात्मकम् । (ख) सुखबोधा, पत्र ७७ । ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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