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________________ उत्तरज्झयणाणि ७६ अध्ययन ३ : श्लोक १४-१५ टि० २१-२७ है और अन्तिम चरण में प्रथम पुरुष की। इससे जान पड़ता है मिथ्यात्व आश्रव, अव्रत आश्रव, प्रमाद आश्रव, कषाय आश्रव कि प्रथम दो चरणों में उपदेश है और अन्तिम दो चरणों में और योग आश्रव। सामान्य निरूपण है। २१. दूर कर (विगिंच) शान्त्याचार्य के अनुसार अन्तिम दो चरणों की व्याख्या इस चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं' प्रकार है-'ऐसा करने वाला पार्थिव शरीर को छोड़कर १. विचङ् पृथग्भागे-पृथक्-पृथक् करना। ऊर्ध्वदिशा (स्वर्ग या मोक्ष) को प्राप्त होता है, इस अर्थ के आगे २. छोड़ना त्यागना। इतना और जोड़ देना चाहिए'—इसलिए तू भी ऐसा कर।' २२. पार्थिव शरीर को (पाढवं सरीर) २४. देव (जक्खा ) बृहवृत्तिकार ने 'पाढवं' की व्याख्या इस प्रकार की है- यक्ष शब्द 'यज' धातू से बना है। इसके दो निरुक्त हैंजो पृथ्वी के तुल्य है वह पार्थिव है। पृथ्वी का एक नाम है- (१) इज्यन्ते पूज्यन्ते इति यक्षाः-जो पूजे जाते हैं वे यक्ष-देव सर्वसहा। वह सब कुछ सहन करती है। मनुष्य का शरीर सब हैं। (२) यान्ति वा तथाविधर्द्धिसमुदयेऽपि क्षयमिति यक्षाः-जो कुछ सहन करता है, सुख-दुःख में सम रहता है। सहिष्णुता की अनेक ऋद्धियों से संपन्न होने पर भी अपनी अवस्थिति से समानता के आधार पर शरीर को भी पार्थिव कहा गया है। च्यूत होते हैं, वे यक्ष हैं। __ इसका दूसरा अर्थ शैल या पर्वत किया जाता है। मनुष्य पहले इसका अर्थ देव था। उत्तरवर्ती साहित्य में इसके पर्वत की भांति अति निश्चल अवस्था को प्राप्त होता है, इसलिए अर्थ का अपकर्ष हुआ और यह शब्द निम्न कोटि की देवजाति उसके शरीर को पार्थिव कहा गया है। के लिए व्यवहृत होने लगा। वृत्तिकार के ये दोनों अर्थ पार्थिव शब्द से बहुत दूर का २५. महाशक्ल (महासूक्का ) संबंध स्थापित करते हैं। चन्द्र, सूर्य आदि अतिशय उज्ज्वल प्रभा वाले होते हैं सूत्रकृतांग की चूर्णि के अनुसार पांच भूतों में पृथ्वी को इसलिए उन्हें महाशुक्ल कहा गया है। 'सुक्क' का संस्कृत रूप मुख्य मानकर शरीर को पार्थिव कहा गया है। शरीर में कठोर शुक्त भी हो सकता है। उसका अर्थ अग्नि भी है। यह मान लेने भाग पृथ्वी, द्रव भाग अप्, उष्णता तेजस्, उच्छ्वास-निःश्वास पर इसका अर्थ होगा-महान् अग्नि । वायु और शुषिर भाग आकाश है। २६. (श्लोक १४) आयुर्वेद में शरीर को पार्थिव कहने का जो कारण बतलाया सभी देव समान शील वाले नहीं होते। उनके तप, नियम है, वह बहुत स्पष्ट है। संभावना की जा सकती है कि पार्थिव और संयम-स्थान समान नहीं होते। व्यक्ति अपने पूर्वजन्म में शब्द आयुर्वेद की परम्परा से ही संगृहीत है। जिस प्रकार से शील-संयम का पालन करता है, उसी के _ 'गंध, घ्राणेन्द्रिय तथा शरीर के अन्तर्गत समस्त कठिन अनुरूप वह देवगति को प्राप्त करता है। सभी देवताओं की अवयव, गुरुत्व (भारीपन तथा पोषण), स्थिरता-ये कार्य शरीर सम्पदा एक सी नहीं होती। पहले देवलोक से दूसरे की और में पृथिवी महाभूत के हैं......पृथिवी लोक पर पाए जाने वाले दूसरे से तीसरे की सम्पदा अधिक होती है। इसी प्रकार यह मनुष्य आदि के शरीर पार्थिव शरीर कहे जाते हैं।' ___शरीरशास्त्री कहते हैं कि शरीर का ७० प्रतिशत भाग सम्पदा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। इसका कारण है-'जहा (लगभग २/३) जल ही से बना है। अस्थि .....सदृश कठिन जहा णं तेसिं देवाणं तव-नियम-बंभचेराणि ऊसितानि भवंति, जस्स जारिसं सीलमासि तारिसो जक्खो भवति। धातु का भी अर्धांश जल ही होता है। शेष घन द्रव्य आयुर्वेद मत विसालिसेहिं यह मागधदेशी भाषा का शब्द है। इसका से पृथिवी-विकार हैं।.....इसका (शरीर का) मुख्य उपादान संस्कृत रूप है-विसदृशैः ।। (समवायि) कारण पृथ्वी ही शेष रहता है। इसी से दर्शनों में इस शरीर को पार्थिव कहा जाता है।" २७. इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं (कामरूव २३. (श्लोक १३) विउग्विणो) प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों में मध्य पुरुष की क्रिया कामरूव विउविणो का अर्थ है-इच्छानुसार रूप करने २. १. उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. ६६ : विचिर् पृथक्भावे, पृथक् कुरुष्व । अहवा विगिंचेति उज्झित इत्यर्थः । बृहद्वृत्ति, पत्र १८६ : पाढवं ति पार्थिवमिव पार्थिवं शीतोष्णादि- परिषहसहिष्णुतया समदुःखसुखतया च पृथिव्यामिव भवं, पृथिवी हि सर्वसहाः, कारणानुरूपं च कार्यमिति भावो। यदि वा पृथिव्या विकारः पार्थिवः, स चेह शैलः ततश्च शैलेशीप्राप्यपेक्षयाऽतिनिश्चलतया शैलोपमत्वात् परप्रसिद्धया वा पार्थिवं.... ३. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. २३,२४ । ४. आयुर्वेदीय पदार्थ विज्ञान (वैद्य रणजितराय देसाई) पृ. ६६, १०६ । ५. बृहद्वृत्ति, पत्र १८६।। ६. वही, पत्र १८७। ७. वही, पत्र १८७ : 'महाशुक्ला' अतिशयोज्ज्वलतया चन्द्रादित्यादयः । ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १००। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र १८७ : विसालिसेहिं ति मागधदेशीयभाषया विसदृशैः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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