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________________ अध्ययन १ : श्लोक ३५-४२ विनयश्रुत ३५.अप्पपाणेऽप्पबीयंमि पडिच्छन्नंमि संवुडे। समयं संजए भुंजे जयं अपरिसाडयं ।। ३६.सुकडे त्ति सुपक्के त्ति सुच्छिन्ने सुहडे मडे। सुणिट्ठिए सुलढे त्ति सावज्जं वज्जए मुणी।। अल्पप्राणेऽल्पबीजे प्रतिच्छन्ने संवृते। समकं संयतो भुंजीत यतमपरिसाटयन्।। सुकृतमिति सुपक्वमिति सुच्छिन्न सुहृतं मृतम्। सुनिष्ठित सुलष्टमिति सावा वर्जयेन्मुनिः।। संयमी मुनि प्राणी और बीज रहित, ऊपर से ढके हुए और पार्श्व में भित्ति आदि से संवृत५६ उपाश्रय में अपने सहधर्मी मुनियों के साथ, भूमि पर न गिराता हुआ, यत्नपूर्वक आहार करे।७।। बहुत अच्छा किया है (भोजन आदि), बहुत अच्छा पकाया है (घेवर आदि), बहुत अच्छा छेदा है (पत्ती का साग आदि), बहुत अच्छा हरण किया है (साग की कड़वाहट आदि), बहुत अच्छा मरा है (चूरमे में घी आदि), बहुत अच्छा रस निष्पन्न हुआ है, (जलेवी आदि में) बहुत इष्ट है--मुनि इन सावध वचनों का प्रयोग न करे। ३७.रमए पण्डिए सासं हयं भई व वाहए। बालं सम्मइ सासंतो गलियस्सं व वाहए।। रमते पण्डितान् शासत् हयं भद्रमिव वाहकः। बालं श्राम्यति शासत् गल्यश्वमिव वाहकः ।। जैसे उत्तम घोड़े को हांकते हुए उसका वाहक आनन्द पाता है, वैसे ही पंडित (विनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु आनन्द पाता है। जैसे दुष्ट घोड़े को हांकते हुए उसका वाहक खिन्न होता है, वैसे ही बाल (अविनीत) शिष्य पर अनुशासन करता हुआ गुरु खिन्न होता है। पाप-दृष्टि वाला शिष्य गुरु के कल्याणकारी अनुशासन को भी ठोकर मारने, चांटा चिपकाने, गाली देने व प्रहार करने के समान मानता है।६० ३८.खड्डुया मे चवेडा मे अक्कोसा य वहा य मे। कल्लाणमणुसासन्तो पावदिट्ठि त्ति मन्नई।। ३६.पुत्तो मे भाय नाइ त्ति साहू कल्लाण मन्नई। पावदिट्ठी उ अप्पाणं सासं दासं व मन्नई।। 'खड्डुया' मे चपेटा मे आक्रोशाश्च वधाश्च मे। कल्याणमनुशास्यमानः पापदृष्टिरिति मन्यते।। पुत्रो मे भ्राता ज्ञातिरिति साधुः कल्याणं मन्यते। पापदृष्टिस्त्वात्मानं शास्यमानं दासमिव मन्यते।। गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह अपना समझ कर शिक्षा देते हैं-ऐसा सोच विनीत शिष्य उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानता है, परन्तु कुशिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास तुल्य मानता है।" शिष्य आचार्य को कुपित न करे। स्वयं भी कुपित न हो। आचार्य का उपघात करनेवाला न हो।६२ उनका छिद्रान्वेषी६३ न हो। ४०.न कोवए आयरियं अप्पाणं पि न कोवए। बुद्धोवघाई न सिया न सिया तोत्तगवेसए।। ४१.आयरियं कुवियं नच्चा पत्तिएण पसायए। विज्झवेज्ज पंजलिउडो वएज्ज न पुणो त्ति य।। ४२.धम्मज्जियं च ववहारं बुद्धेहारियं सया। तमायरंतो ववहारं गरहं नाभिगच्छई।। न कोपयेदाचार्य आत्मानमपि न कोपयेत् । बुद्धोपघाती न स्यात् न स्यात् तोत्रगवेषकः।। आचार्य कुपितं ज्ञात्वा प्रातीतिकेन प्रसादयेत्। विध्यापयेत् प्रांजलिपुटः वदेन्न पुनरिति च।। धर्मार्जितं च व्यवहारं बुबैराचरितं सदा। तमाचरन् व्यवहार गर्दा नाभिगच्छति।। आचार्य को कुपित हुए जानकर विनीत शिष्य प्रतीतिकारक (या प्रीतिकारक) वचनों से उन्हें प्रसन्न करे। हाथ जोड़कर उन्हें शांत करे और यों कहे कि “मैं पुनः ऐसा नहीं करूंगा।" जो व्यवहार धर्म से अर्जित हुआ है, जिसका तत्त्वज्ञ आचार्यों ने सदा आचरण किया है, उस व्यवहार का आचरण करता हुआ मुनि कहीं भी गर्दा को प्राप्त नहीं होता। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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