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________________ उत्तरज्झयणाणि १० अध्ययन १ : श्लोक ४३-४८ करे। ४३.मणोगयं वक्कगर्य मनोगतं वाक्यगतं आचार्य के मनोगत और वाक्यगत भावों को जानकर, जाणित्तायरियस्स उ। ज्ञात्वा आचार्यस्य तु। उनको वाणी से ग्रहण करे और कार्यरूप में परिणत तं परिगिज्झ वायाए तत् परिगृह्य वाचा कम्मुणा उववायए।। कर्मणोपपादयेत् ।। ४४.वित्ते अचोइए निच्चं वित्तोऽचोदितो नित्यं जो विनय से प्रख्यात होता है वह सदा बिना प्रेरणा खिप्पं हवइ सुचोइए। क्षिप्रं भवति सुचोदितः। दिए ही कार्य करने में प्रवृत्त होता है। वह अच्छे जहोवइलृ सुकयं यथोपदिष्टं सुकृतं प्रेरक गुरु की प्रेरणा पाकर तुरन्त ही उनके उपदेशानुसार किच्चाई कुव्वई सया।। कृत्यानि करोति सदा।। भलीभांति कार्य सम्पन्न कर लेता है। ४५.नच्चा नमइ मेहावी ज्ञात्वा नमति मेधावी मेधावी मुनि उक्त विनय-पद्धति को जानकर उसे लोए कित्ती से जायए। लोके कीर्तिस्तस्य जायते। क्रियान्वित करने में तत्पर हो जाता है। उसकी लोक हवई किच्चाणं सरणं भवति कृत्यानां शरणं में कीर्ति होती है। जिसे प्रकार पृथ्वी प्राणियों के लिए भूयाणं जगई जहा।। भूतानां जगती यथा।। आधार होती है, उसी प्रकार वह आचार्यों के लिए आधारभूत बन जाता है। ४६.पुज्जा जस्स पसीयन्ति पूज्या यस्य प्रसीदन्ति उस पर तत्त्ववित् पूज्य आचार्य प्रसन्न होते हैं।" संबुद्धा पव्वसंथुया। सम्बुद्धाः पूर्वसंस्तुताः। अध्ययन काल से पूर्व ही वे उसके विनय समाचरण पसन्ना लाभइस्सन्ति प्रसन्न लाभयिष्यन्ति से परिचित होते हैं। वे प्रसन्न होकर उसे मोक्ष के विउलं अट्ठियं सुयं ।। विपुलमार्थिकं श्रुतम्।। हेतुभूत विपुल श्रुतज्ञान का लाभ करवाते हैं। ४७.स पुज्जसत्ये सुविणीयसंसए। स पूज्यशास्त्रः सुविनीतसंशयः वह पूज्य-शास्त्र" होता है-उसके शास्त्रीय ज्ञान का मणोरुई चिट्ठइ कम्मसंपया। मनोरुचिस्तिष्ठति कर्मसम्पदा। बहुत सम्मान होता है। उसके सारे संशय मिट जाते तवोसमायारिसमाहिसंवुडे तपःसामाचारीसमाधिसंवृतः हैं। वह गुरु के मन को भाता है। वह कर्म-सम्पदा महज्जुई पंचवयाइं पालिया।। महाद्युतिः पंच व्रतानि पालयित्वा।। (दस विध सामाचारी) से सम्पन्न होकर रहता है। वह तपःसामाचारी और समाधि से संवृत होता है। वह पांच महाव्रतों का पालन कर महान् तेजस्वी हो जाता है। ४८.स देवगन्धव्वमणुस्सपूइए स गन्धर्वमनुष्यपूजितः देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित वह विनीत शिष्य चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं। त्यक्त्वा देहं मलपड्कपूर्वकम्। मल और पंक से बने हुए शरीर को त्यागकर या तो सिद्धे वा हवइ सासए सिद्धो वा भवति शाश्वतः शाश्वत सिद्ध होता है या अल्पकर्मवाला महर्द्धिक देव देवे वा अप्परए महिड्ढिए।। देवो वा अल्परजा महर्धिकः।। होता है। –त्ति बेमि। -इति ब्रवीमि। --ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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