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________________ उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३६ : श्लोक १६८-२०६ १६८. संमुच्छिमाण एसेव भेओ होइ आहिओ। लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे वि वियाहिया।। ६२२ सम्मूछिमाणामेष एव भेदो भवति आख्यातः। लोकस्यैकदेशे ते सर्वेऽपि व्याख्याताः ।। सम्मूच्छिम मनुष्यों के भी उतने ही भेद हैं जितने गर्भ-उत्पन्न मनुष्यों के हैं। वे लोक के एक भाग में ही होते हैं। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १६६. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः तीन पल्योपम की है। २००. पडिओवमाइं तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। आउट्ठिई मणुयाणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमानि त्रीणि तु उत्कर्षेण व्याख्याता। आयुःस्थितिर्मनुजानां अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम २०१. पलिओवमाइं तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। पुव्वकोडीपुहत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमानि त्रीणि तु उत्कर्षेण व्याख्याता। पूर्वकोटिपृथक्वेन अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ।। २०२. कायट्ठिई मणुयाणं अंतरं तेसिमं भवे। अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ।। कायस्थितिर्मनुजानां अन्तरं तेषामिदं भवेत्। अनन्तकालमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। यह मनुष्यों की काय-स्थिति है। उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो स्पस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः।। देवाश्चतुर्विधा उक्ताः तान् मे कीर्तयतः शृणु। भौमेया वाणव्यन्तराः ज्योतिष्काः वैमानिकास्तथा।। देव चार प्रकार के हैं--(१) भवन-वासी, (२) व्यन्तर, (३) ज्योतिष्क और (४) वैमानिक। २०३. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। २०४. देवा चउव्विहा वुत्ता ते मे कित्तयओ सुण। भोमिज्जवाणमंतर जोइसवेमाणिया तहा।। २०५. दसहा उ भवणवासी अट्ठहा वणचारिणो। पंचविहा जोइसिया दुविहा वेमाणिया तहा।। २०६. असुरा नागसुवण्णा विज्जू अग्गी य आहिया। दीवोदहिदिसा वाया थणिया भवणवासिणो ।। दशधा तु भवनवासिनः अष्टधा वनचारिणः। पंचविधा ज्योतिष्काः द्विविधा वैमानिकास्तथा।। भवनवासी देव दस प्रकार के हैं। व्यन्तर आठ प्रकार के हैं। ज्योतिष्क पांच प्रकार के हैं। वैमानिक दो प्रकार के हैं। असुरा नागसुपर्णाः विद्युदग्निश्च आख्याताः। द्वीपोदधिदिशो वाताः स्तनिता भवनवासिनः।। (१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) सुपर्णकुमार, (8) विद्युत्कुमार, (५) अग्निकुमार, (६) द्वीपकुमार, (७) दधिकुमार, (८) दिक्कुमार, (E) वायुकुमार, (१०) स्तनितकुमार—ये भवनवासी देवों के दस प्रकार हैं। dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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