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________________ जीवाजीवविभक्ति अध्ययन ३६ : श्लोक १८६-१६७ १५.६६. लोगेगदेसे ते सव्वे न सव्वत्थ वियाहिया। इत्तो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चउव्विहं।। ६२१ लोकैकदेशे ते सर्वे न सर्वत्र व्याख्याताः। इतः कालविभागं तु वक्ष्यामि तेषां चतुर्विधम् ।। वे लोक के एक भाग में होते हैं, समूचे लोक में नहीं। अब मैं उनके चतुर्विध काल-विभाग का निरूपण करूंगा। प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनन्त और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। १६०. संतई पप्पणाईया अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य।। सन्ततिं प्राप्य अनादिकाः अपर्यवसिता अपि च। स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च।। १६१. पलिओवम्मस भागो असंखेज्जइमो भवे। आउट्ठिई खहयराणं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। पल्योपमस्य भागः असंख्येयतमो भवेत्। आयुःस्थितिः खेचराणां अन्तर्मुहूर्त जघन्यका।। उनकी आयु-स्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है। जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग १६२. असंखभागो पलियस्स उक्कोसेण उ साहिओ। पुव्वकोडीपुहत्तेणं अंतोमुहुत्तं जहन्नियं ।। असंख्यभाग: पलस्य उत्कर्षेण तु साधिका। पूर्वकोटीपृथक्त्वेन अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका।। १६३. कायठिई खहयराणं अंतरं तेसिमं भवे। कालं अणंतमुक्कोसं अंतोमुहुत्तं जहन्निया।। कायस्थितिः खेचराणां अन्तरं तेषामिदं भवेत्। कालमनन्तमुत्कर्ष अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम्।। यह खेचर जीवों की काय-स्थिति है। उनका अन्तर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः अनन्त-काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की दृष्टि से उनके हजारों भेद होते हैं। १६४. एएसिं वण्णओ चेव गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो।। एतेषां वर्णतश्चैव गन्धतो रसस्पर्शतः। संस्थानादेशतो वापि विधानानि सहस्रशः ।। मनुष्य दो प्रकार के हैं-(१) सम्मूच्छिम२२ और (२) गर्भ-उत्पन्न। १६५. मणुया दुविहभेया उ ते मे कित्तयओ सुण। संमुच्छिमा य मणुया गब्भवक्कंतिया तहा।। मनुजा द्विविधभेदास्तु तान् मे कीर्तयतः शृणु। सम्मूर्छिमाश्च मनुजाः गर्भावक्रान्तिकास्तथा।। गर्भ-उत्पन्न मनुष्य तीन प्रकार के हैं२— (१) अकर्मभूमिक, (२) कर्म-भूमिक और (३) अन्तर्वीपक। गर्भवक्रान्तिका ये तु त्रिविधास्ते व्याख्याताः। अकर्मकर्मभूमाश्च अन्तद्वीपकास्तथा।। १६. गब्भवक्कंतिया जे उ तिविहा ते वियाहिया। अकम्मकम्मभूमा य अंतरद्दीवया तहा।। १६७. पन्नरस तीसइ विहा भेया अट्ठवीसइं। संखा उ कमसो तेसिं इइ एसा वियाहिया।। पंचदशत्रिंशद्विधाः भेदा अष्टाविंशतिः। सङ्ख्या तु क्रमशस्तेषां इत्येषा व्याख्याता।। कर्म-भूमिक मनुष्यों के पन्द्रह, अकर्म-भूमिक मनुष्यों के तीस तथा अन्तर्वीपक मनुष्यों के अट्ठाईस भेद होते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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