SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि ४२ अध्ययन २ : श्लोक ११-१३ टि० १६-२० मानकर उसका अर्थ शूरवीर योद्धा किया है।' भयंकर वेदना। उसने सोचा-'यह वेदना कितने क्षणों की है? जेकोबी ने 'शूर' को स्वतंत्र मानकर इसका अर्थ इससे भी अनन्तगुणा अधिक वेदना मैंने नरकावासों में सही आत्म-योद्धा किया है। है।' मुनि आत्मस्थ हो गया। अपनी चेतना के समुद्र में १६. संत्रस्त न हो (न संतसे) निमज्जन कर उसने सोचाचूर्णिकार ने इसका अर्थ-हाथ, पैर आदि अवयवों को न 'अन्न इमं सरीर, अन्नो जीवो त्ति एव कयबुद्धी। हिलाए, न उछाले---किया है। दुक्खकरं जीव! तुम, छिंद ममत्तं सरीरम्मि।। शान्त्याचार्य ने इसके दो अर्थ किये हैं—(१) दंशमशक --आत्मन्! तू सोच। यह शरीर भिन्न है और आत्मा आदि से संत्रस्त न हो। (२) हाथ, पैर आदि अवयवों को न भिन्न है। जो शरीर के प्रति मढ होता है वह दःख के आवर्त हिलाए। में फंसता जाता है। तू शरीर के मोह को तोड़ और अपनी डॉ. हरमन जेकोबी और डॉ. सांडेसरा ने इसका अर्थ- चेतना में उन्मज्जन-निमज्जन कर। प्राणियों को त्रसित न करना—किया है। __इस आलंबन सूत्र से मुनि ने उस पीड़ा को सहा। इसमें परस्पर कोई विरोध नहीं है, परन्तु परीषह का दंश-मशकों ने उसके शरीर को रक्तहीन कर डाला। वह उसी प्रकरण है इसलिए शान्त्याचार्य का प्रथम अर्थ अधिक उपयुक्त है। रात दिवंगत हो गया, पर अधृति में नहीं फंसा।' १७. हटाना (वारेज्जा) २०. श्लोक १३ : इसका अर्थ है हटाना, निषेध करना। मुनि हाथ, वस्त्र, इस श्लोक में आया हुआ ‘एगया' शब्द मुनि की जिनकल्पिक शाखा, धूम आदि उपायों से डांस और मच्छरों का निवारण न और और स्थविरकल्पिक अवस्थाओं तथा वस्त्राभाव आदि अवस्थाओं करे। की ओर संकेत करता है। १८. उपेक्षा करे (उवेहे) चूर्णिकार के अनुसार मुनि जिनकल्प अवस्था में 'अचेलक' दंश-मशकों के द्वारा काटे जाने पर मुनि उनकी उपेक्षा होता है। स्थविरकल्प अवस्था में वह दिन में, ग्रीष्म ऋतु में या करे, उन पर राग-द्वेष न लाए। वह यह सोचे-ये असंज्ञी हैं, वर्षा ऋतु में बरसात न आने तक भी अचेलक रहता है। भोजन के प्रयोजन से घूम रहे हैं। मेरा शरीर इनके लिए भोज्य शिशिर-रात्र (पौष और माघ), वर्षा-रात्र (भाद्र और आश्विन), है, सर्वसाधारण जैसा है। यदि ये मेरे शरीर से अत्यंत अल्प-मात्रा बरसात गिरते समय तथा प्रभात काल में भिक्षा के लिए जाते में रक्त और मांस खाते हैं तो क्या है? मुझे इन पर द्वेष नहीं समय वह 'सचेलक' रहता है। करना चाहिए। ये रक्त ही तो पी रहे हैं, मेरी आत्मा का इससे यह लगता है कि एक ही मुनि एक ही काल में उपहनन तो नहीं कर रहे हैं। अचेलक और सचेलक—दोनों अवस्थाओं में रहता है। १९. श्रमणभद्र राजपुत्र था। उसका मन विरक्त हुआ और वह शान्त्याचार्य के अनुसार जिनकल्प अवस्था में मुनि अचेलक धर्मघोष आचार्य के पास प्रवजित हो गया। वह आगमों का पूरा होता है और स्थविरकल्प अवस्था में भी जब वस्त्र दुर्लभ हो पारायण कर अपनी शक्ति को तोलकर एकलविहार प्रतिमा जाते हैं या सर्वथा मिलते ही नहीं अथवा वस्त्र होने पर भी वर्षा को स्वीकार कर विचरने लगा। शरद् ऋतु। अटवी में वह ऋतु के बिना उनको धारण न करने की परम्परा होने के कारण ध्यान-स्थित हो गया। रात्री का समय। दंश-मशकों ने अथवा वस्त्रों के फट जाने पर वह अचेलक हो जाता है। आक्रमण किया। उसके अनावृत शरीर को वे काटने लगे। नेमिचन्द्र का अभिमत भी संक्षेप में यही है। १. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६......शूरो वा योधः। (ख) बृहत्वृत्ति, पत्र ६१: शूरः-पराक्रमवान् । यद्वा शूरो-योधः । २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६६ : न संत्रसति अंगानि कंपयति विक्षिपति वा। ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ६१ : 'न संत्रसेतू' नोद्विजेत् दंशादिभ्य इति गम्यते, यद्वाऽनेकार्थत्वाद्धातूनां न कम्पयेत्तैस्तुधमानोऽपि, अङ्गानीति शेषः। 8. (35) The Sacred Book of the East Vol. XLV, P.11 : He Should not ___ scare away (insects) (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६ : त्रास आपवो नहीं..... उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६ : न चैव हस्तवस्त्रशाखाधूमादिभिस्तान्नि वारणोपायैर्वारयति। ६. (क) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ५६ : चैषामसंज्ञित्वात् आहारकांक्षिणां, भुंजमानानां मच्छरीरं साहारणं यदि भक्षयन्ति किं ममात्र प्रद्वेषोत्पाते? (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ६२ तथा असंज्ञिन एते आहारर्थिनश्च भोज्यमेतेषां मच्छरीरं बहुसाधारणं च यदि भक्षयन्ति किमत्र प्रद्वेषेणेति च विचिन्तयन् तदुपेक्षणपरो न तदुपघातं विदध्यादिति। ७. सुखबोधा, पत्र २२। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ६०: एगता नाम जदा जिणकप्पं पडिवज्जति, अहवा दिवा अचेलगो भवति, ग्रीष्मे वा, वासासूवि वासे अपडिते ण पाउणति, एवमेव एगता अचेलगो भवति, सचेले यावि एगता' तं जहा सिसिररातीए वरिसारत्ते वासावासे पडते भिक्खं हिंडते। ६. बृहद्वृत्ति, पत्र ६२-६३ : 'एकदा' एकस्मिन् काले जिनकल्पप्रतिपत्ती स्थविरकल्पेऽपि दुर्लभवस्वादी वा सर्वथा चेलाभावेन, सति वा चेले विना वर्षादिनिमित्तमप्रावरणेन, जीर्णादिवस्त्रतया वा 'अचेलक' इति अवस्वोऽपि भवति। १०. सुखबोधा, पत्र २२ : 'एकदा' जिनकल्पिकाद्यवस्थायां सर्वथा चेलाभावेन जीर्णादिवस्त्रतया वा अचेलको भवति। सचेलश्च 'एकदा' स्थविरकल्पिकाद्यवस्थायाम्। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy