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________________ उत्तरज्झयणाणि ३६. चउत्थीए पोरिसीए निक्खिवित्ताण भायणं । सज्झायं तओ कुज्जा सव्वभावविभावणं ।। ३७. पोरिसीए चउब्भाए वंदित्ताण तओ गुरुं । पडिक्कमित्ता कालरस सेज्जं तु पडिलेहए। । ३८. पासवणुच्चारभूमिं च पडिलेहिज्ज जयं जई। काउस्सग्गं तओ कुम्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं ।। ३६. देसियं च अईयारं चिंतिज्ज अणुपुव्वसो । नाणे दंसणे चेव चरित्तम्मि तहेव य ।। ४०. पारियकाउस्सग्गो वंदिताण तओ गुरुं । देसियं तु अईयारं आलोएज्ज जहक्कमं ।। ४१. पडिक्कमित्तु निस्सल्लो वंदिताण तओ गुरु काउस्सगं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्षणं ।। ४२. पारियकाउस्सग्गो वंदित्ताण तओ गुरुं । थुइमंगलं च काऊण कालं संपडिलेहए || ४३. पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं आणं शिवायई । तइयाए निद्दमोक्खं तु सज्झायं तु चउत्थिए ।। ४४. पोरिसीए चउत्थीए कालं तु पडिलेहिया । सज्झायं तओ कुज्जा अबोहेंतो असंजए ।। Jain Education International ४१६ चतुय पौरुष्यां निक्षिप्य भाजनम् । स्वाध्यायं ततः कुर्यात् सर्वभावविभावनम् ।। पीरुष्याश्चतुि वन्दित्वा ततो गुरुम् । प्रतिक्रम्य कालस्य शय्यां तु प्रतिलिखेत् ।। पक्षयणोच्चारभूमि प प्रतिलिखेद्यतं यतिः । कायोत्सर्गं ततः कुर्यात् सर्वदुःखविमोक्षणम्।। दैवसिकं चातिचारं चिन्तयेदनुपूर्वशः। ज्ञाने दर्शने चैव चरित्रे तथैव च ॥ पारितकायोत्सर्गः वन्दित्वा ततो गुरुम् । दैवसिकं त्वतिचारं आलोचये यथाक्रमम् ।। प्रतिक्रम्य निःशल्यः वन्दित्वा ततो गुरुम् । कायोत्सर्गं ततः कुर्यात् सर्वदुःखविमोक्षणम् ।। पारितकायोत्सर्गः वन्दित्वा ततो गुरुम् । स्तुतिमंगलं च कृत्या काल संप्रतिलिखेत् । प्रथमां पौरुषीं स्वाध्यायं द्वितीयां ध्यानं ध्यायति । तृतीयायां निद्रामोक्षं तु स्वाध्यायं तु चतुर्थ्या पौरुष्यां चतुथ्यों कालं तु प्रतिलिख्य । स्वाध्यायं ततः कुर्यात् अयोधयन्नसंयतान् । अध्ययन २६ : श्लोक ३६-४४ चौथे प्रहर में भाजनों को प्रतिलेखन पूर्वक बांध कर रख दे, फिर सर्व भावों को प्रकाशित करने वाला ** स्वाध्याय करे। चौथे प्रहर के चतुर्थ भाग में पौन पौरुषी बीत जाने पर स्वाध्याय के पश्चात् गुरु को वन्दना कर, काल का प्रतिक्रमण कर, ( स्वाध्याय- काल से निवृत्त होकर ) शय्या की प्रतिलेखना करे। यतनाशील यति पर प्रस्रवण और उच्चार भूमि की प्रतिलेखना करे । तदनन्तर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे। ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्बन्धी दैवसिक अतिचार का अनुक्रम से चिन्तन करे । कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर अनुक्रम से दैवसिक अतिचार की आलोचना करे । प्रतिक्रमण से निःशल्य होकर गुरु को वन्दना करे । फिर सर्व दुःखों से मुक्त करने वाला कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग को समाप्त कर गुरु को वन्दना करे। फिर स्तुति-मंगल करके काल की प्रतिलेखना करे । प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुनः स्वाध्याय करे । चौथे प्रहर के काल की प्रतिलेखना कर असंयत व्यक्तियों को न जगाता हुआ स्वाध्याय करे। ! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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