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________________ सामाचारी २८. अणूणाइरित्तपडिले हा अविवच्चासा तहेव य । पढमं पयं पसत्थं सेसाणि उ अप्पसत्थाई ।। २६. पहिलेहणं कुणंतो मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा । देइ व पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा ।। ३०. पुढवी आउक्काए तेऊवाऊवणस्सङ्गतसाणं । पडिलेहणापमत्ती छण्हं पि विराहओ होइ ।। (पुढवी आउक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाणं । पडिलेहणआउसो छण्डं आराहओ होइ ।) ३१. तइयाए पोरिसीए भत्तं पाणं गवेसए । छण्हं अन्नयरागम्मि कारणंमि समुट्ठिए । ३२. वेयणवेयावच्चे इरियट्ठाए य संजमट्ठाए । तह पाणवत्तियाए छ पूण धम्मचिंताए । २३. निग्गंयो धिमंती निग्गंथी वि न करेज्ज छहिं चेव । ठाणेहिं उ इमेहिं अणइक्कमणा य से होइ ।। ३४. आयंके उवसग्गे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । पाणिदया तवहेउं सरीरवोच्छेवणट्टाए । ३५. अवसेसं भंडगं गिज्झा चक्सा पडिलेहए। परमद्धजोयणाओ विहारं विहरए मुणी ।। Jain Education International ४१५ अनूना ऽतिरिक्ता प्रतिलेखा अविव्यत्यासा तथैव च । प्रथमं पदं प्रशस्तं शेषाणि त्वप्रशस्तानि ।। प्रतिलेखनां कुर्वन् मिथःकथां करोति जनपदकथां वा । ददाति वा प्रत्याख्यानं वाचयति स्वयं प्रतीच्छति वा ।। पृथिव्यपकाययोः तेजो-: - वायु-वनस्पति-त्रसाणाम् । प्रतिलेखनाप्रमत्तः षष्णामपि विराधको भवति ।। (पृथिव्यप्रकापयोः तेजोवायुवनस्पत्तित्राणाम्। प्रतिलेखनाऽऽयुक्तः षण्णामाराको भवति । i) तृतीयायां पौरुष्यां भक्तं पानं गवेषयेत् । षण्णामन्यतरस्मिन् कारणे समुत्थिते ।। वेदनाचावृत्याय दर्यार्थाय च संयमार्थाय तथा प्राणप्रत्ययाय षष्टं पुनः धर्मचिन्तायै ।। निर्ग्रन्थो धृतिमान् निर्ग्रन्थ्यपि न कुर्यात् षभिश्चैव । स्थानैस्त्वेभि: अनतिक्रमणं च तस्य भवति ।। आतङ्क उपसर्ग: तितिक्षया ब्रह्मचर्यगुप्तिषु । प्राणिदया तपोहेतोः शरीरव्यवच्छेदार्थाय ।। अवशेषं भाण्डकं गृहीत्वा चक्षुषा प्रतितिखेत । परमर्धयोजनात् विहारं विहरेन्मुनिः ।। अध्ययन २६ : श्लोक २८-३५ वस्त्र के प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण से अन्यून अनतिरिक्त (न कम और न अधिक) और अविपरीत प्रतिलेखना करनी चाहिए। इन तीन विशेषणों के आधार पर प्रतिलेखना के आठ विकल्प बनते हैं। इनमें प्रथम विकल्प (अन्यून अनतिरिक्त और अविपरीत) प्रशस्त है और शेष अप्रशस्त । जो प्रतिलेखना करते समय काम कथा करता है अथवा जनपद की कथा करता है अथवा प्रत्याख्यान कराता है, दूसरों को पढ़ाता है अथवा स्वयं पढ़ता वह प्रतिलेखना में प्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकायइन छहों कार्यों का विराधक होता है।* ( प्रतिलेखना में अप्रमत्त मुनि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय इन छहों कायों का आराधक होता है ।) छह कारणों में से किसी एक के उपस्थित होने पर तीसरे प्रहर में भक्त और पान की गवेषणा करे। वेदना ( क्षुधा ) शान्ति के लिए, वैयावृत्त्य के लिए, ईर्या समिति के शोधन के लिए, संयम के लिए तथा प्राण-प्रत्यय ( जीवित रहने) के लिए और धर्म - चिन्तन के लिए भक्त पान की गवेषणा करे। धृतिमान् साधु और साध्वी इन छह कारणों से भक्त-पान की गवेषणा न करे, जिससे उनके संयम का अतिक्रमण न हो । रोग होने पर, उपसर्ग आने पर ब्रह्मचर्य गुप्ति की तितिक्षा (सुरक्षा) के लिए, प्राणियों की दया के लिए, तप के लिए और शरीर-विच्छेद के लिए मुनि भक्त पान की गवेषणा न करे ।" सब ( भिक्षोपयोगी ) भाण्डोपकरणों को ग्रहण कर चक्षु से उनकी प्रतिलेखना करे और दूसरे गांव में भिक्षा के लिए जाना आवश्यक हो तो अधिक से अधिक अर्ध-योजन प्रदेश तक जाए। १३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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