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________________ उत्तरज्झयणाणि ४१४ अध्ययन २६ : श्लोक २५-२७ २५.अणच्चावियं अवलियं अणाणुबंधिं अमोसलिं चेव। छप्पुरिमा नव खोडा पाणोपाणविसोहणं ।। अनर्तितमवलितं अननुबन्ध्यऽमौशली चैव। षट्पूर्वा नव-खोडा पाणिप्राणविशोधनम्।। २६.आरभडा सम्मद्दा वज्जेयव्वा य मोसली तइया। पष्फोडणा चउत्थी। विक्खित्ता वेइया छट्ठा।। आरभटा सम्मा वर्जयितव्या च मौशली तृतीया। प्रस्फोटना चतुर्थी विक्षिप्ता वेदिका षष्ठी।। प्रतिलेखना करते समय (१) वस्त्र या शरीर को न नचाए, (२) न मोड़े, (३) वस्त्र के दृष्टि से अलक्षित विभाग न करे, (2) वस्त्र का भींत आदि से स्पर्श न करे, (५) वस्त्र के छह पूर्व और नौ खोटक करे और (६) जो कोई प्राणी हो उसका हाथ पर नी बार विशोधन (प्रमार्जन) करे। मुनि प्रतिलेखना में छह दोषों का वर्जन करे(१) आरभटा-विधि से विपरीत प्रतिलेखन करना अथवा एक वस्त्र का पूरा प्रतिलेखन किए बिना आकुलता से दूसरे वस्त्र को ग्रहण करना। (२) सम्मर्दा–प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस प्रकार पकड़ना कि उसके बीच में सलवटें पड़ जाय अथवा प्रतिलेखनीय उपधि पर बैठ कर प्रतिलेखना करना। (३) मोसली-प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे, तिरछे किसी वस्त्र या पदार्थ से संघट्टित करना। (४) प्रस्फोटना-प्रतिलेखन करते समय रज-लिप्तवस्त्र को गृहस्थ की तरह वेग से झटकना। (५) विक्षिप्ता—प्रतिलेखित वस्त्रों को अप्रतिलेखित वस्त्रों पर रखना अथवा वस्त्र के अञ्चल को इतना: ऊंचा उठाना कि उसकी प्रतिलेखना न हो सके। (६) वेदिका–प्रतिलेखना करते समय घुटनों के ऊपर, नीचे या पार्श्व में हाथ रखना अथवा घुटनों की भुजाओं के बीच रखना। प्रतिलेखना के ये सात दोष और हैं(१) प्रशिथिल वस्त्र को ढीला पकड़ना। (२) प्रलम्ब-वस्त्र को विषमता से पकड़ने के कारण कोनों को लटकना। (३) लोल-प्रतिलेख्यमान वस्त्र का हाथ या भूमि से संघर्षण करना। (४) एकामर्शा-वस्त्र को बीच में से पकड़ कर उसके दोनों पाश्वों का एक बार में ही स्पर्श करना-एक दृष्टि में ही समूचे वस्त्र को देख लेना। (५) अनेक रूप धूनना-प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को अनेक बार (तीन बार से अधिक) झटकना अथवा अनेक वस्त्रों को एक साथ झटकना। (६) प्रमाण-प्रमाद-प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण (नौ-नौ बार करना) बतलाया है, उसमें प्रमाद करना। (७) गणनोपगणना—प्रस्फोटन और प्रमार्जन के निर्दिष्ट प्रमाण में शडूका होने पर उसकी गिनती करना। २७.पसिढिलपलंबलोला एगामोसा अणेगरूवधुणा। कुणइ पमाणिक पमायं संकिए गणणोवगं कुज्जा।।। प्रशिथिलप्रलम्बलोलाः एकामर्शानेकरूपधूनना। करोति प्रमाणे प्रमादं शंकिते गणनोपगं कुर्यात् ।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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