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________________ सामाचारी ४२३ के प्रथम दिन वह ४ पाद प्रमाण हो जाती है। उत्तरायण के बाद वह उसी क्रम में घटती हुई दक्षिणायन के प्रथम दिन तक वापस दो पाद प्रमाण हो जाती है। इस गणित से चैत्र और आश्विन में तीन पाद प्रमाण छाया होती है। १२ मास की पौरुषी छाया का प्रमाण समय आषाढ़ पूर्णिमा सावण पूर्णिमा भाद्रपद पूर्णिमा आश्विन पूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा मृगसर पूर्णिमा पौष पूर्णिमा माघ पूर्णिमा फाल्गुन पूर्णिमा चैत्र पूर्णिमा वैशाख पूर्णिमा ज्येष्ठ पूर्णिमा ८. (श्लोक १४) पाद- अंगुल २-० २-४ २-८ ३-० ३-४ ३-८ ४-० सात दिनों में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और मास में चार अंगुल प्रमाण छाया को बढ़ना माना है, वह व्यवहार या स्थूल दृष्टि से है। वहां पूर्ण दिन ग्रहण किया है। शेष दिन की विवक्षा नहीं की है। जयाचार्य ने इसी भाव को स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययन की जोड़ में लिखा है “सात दिनों में दो पग से एक अंगुल अधिक छाया तब बढ़ती है जब कि पक्ष १४ दिनों का हो। यदि पक्ष १५ दिनों का हो तो ७३ दिन रात में एक अंगुल छाया बढ़ती जाती है।"" ३-८ ३-४ ३-० २-८ २-४ सूर्य वर्ष के एक अयन में १८३ अहोरात्र होते हैं। एक अयन में दो पाद अर्थात् २४ अंगुल छाया बढ़ने से एक अहोरात्र में २४ अंगुल बढ़ती है। एक अंगुल छाया बढ़ने में उसे १८ अर्थात् ७ दिन लगते हैं । औघनियुक्ति में भी एक दिन में अंगुल के सातवें भाग से कम वृद्धि मानी है। १८३ १. ४. वही, २८ ॥७६५, ७६६ : उत्तराध्ययन जोड़, २६ ५१, ५२ : तेह थकी दिन सातरे बे पग आंगुल अधिक। पोहर दिवस तब थात रे, दिन चवदै नो पख तदा ।। जो पनरै दिन नों पक्ष रे, तो साढा सात अहोनिशे। हुवै पौरिसी लक्ष रे, वे पग इक आंगुल अधिक।। २. ओघनियुक्तित, गाथा २८४ : दिवसे दिवसे अंगुलस्य सत्तमो भागो किंचिप्पूणो वड्ढइ । वृत्ति ३. काललोकप्रकाश, २६।१०२६ : यत्तु ज्योतिष्करण्डादौ, वृद्धिहान्योर्निरूपिताः । चत्वारोऽत्रांगुलस्यांशा, एकत्रिंशत् समुद्भवा ।। Jain Education International यद्वदेको ऽप्यहोरात्रः, सूर्यजातो द्विधा कृतः । दिनरात्रिविभेदेन, संज्ञाभेदप्ररूपणात् ।। अध्ययन २६ : श्लोक १४, १५ टि०८, ६ ज्योतिष्करण्डक में एक तिथि में अंगुल प्रमाण छाया बढ़ती हुई मानी गई है। लोक-प्रकाश में और ज्योतिष्करण्डक के फलित में कोई अन्तर नहीं है केवल विवक्षा का भेद है। पहले में अहोरात्र की अपेक्षा से है और दूसरे में तिथि के अपेक्षा से । अहोरात्र की उत्पत्ति सूर्य से होती है और तिथि की उत्पत्ति चन्द्रमा से ।" ६१ अहारोत्र से ६२ तिथियां होती है। ६२ तिथियों में ६१ अहोरात्र होने से एक तिथि में ६३ अहोरात्र होते हैं । प्रत्येक अहोरात्र में अगली तिथि का ३ भाग प्रवेश करता है। अतः ६१ वें अहोरात्र में ६२ वीं तिथि समा जाती है। 1 १ अहोरात्र में ६, अंगुल प्रमाण छाया बढ़ती है। इसलिए ६१ अहोरात्र में ६,४६१-८ अंगुल । १ तिथि में अंगुल प्रमाण छाया बढ़ती है इसलिए ६२ तिथियों में x ६२=८ अंगुल । इस प्रकार अंगुल छाया बढ़ने में ६१ अहोरात्र या ६२ तिथियों का कालमान लगता है । ६१ अहोरात्र ६२ तिथियों के समान होने से दोनों के फलित होने में कोई अन्तर नहीं है। ९. (श्लोक १५) साधारणतया एक मास में ३० अहरोत्र होते हैं और एक पक्ष में १५ अहरोत्र । किन्तु आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन और वैशाख मास के कृष्ण पक्ष में १ अहोरात्र कम होता है। अतः इनका पक्ष १४ अहोरात्र का ही होता है। एक वर्ष में ६ रात्रियां अवम होती हैं। लोकप्रकाश में भी ऐसा माना है। इसका कारण यह है कि एक अहोरात्र के कालमान से २ भाग कम तिथि का कालमान है, अर्थात् ६ अहोरात्र में एक तिथि पूरी होती है। इस प्रकार ६१ अहोरात्र में ६२ तिथियां होती हैं। प्रत्येक अहोरात्र में अगली तिथि का ६२ भाग प्रवेश करता है । अतः ६१ वें अहोरात्र में ६२ वीं तिथि समा जाती है। इस गणित से ३६६ अहोरात्रों में ६ तिथियां क्षय हो जाती है। लौकिक व्यवहार के अनुसार वर्षा ऋतु का प्रारम्भ आषाढ़ मास में होता है। इसे प्रधानता देकर ६१ वें अहोरात्र अर्थात् भाद्रव कृष्ण पक्ष में तिथि का क्षय माना है। इस प्रकार तथैव तिथिरेकापि, शशिजाता द्विधा कृता । दिनरात्रिविभेदेन, संज्ञाभेदप्ररूपणात् ।। ५. काललोकप्रकाश, २८ १७८३ वृत्ति द्वाषष्ट्या हि तिथिभिः परिपूर्णा एकषष्टिरहोरात्रा भवन्ति । ६. वही, २८ ७८४७८५ युगेऽथावमरात्राणां स्वरूपं किंचिदुच्यते । भवंति ते च षड् वर्षे, तथा त्रिंशद्युगेऽखिले ।। एकेकस्मिन्नहोरात्र, एको द्वाषष्टिकल्पितः । लभ्यते ऽवमरात्रांश एकवृद्ध्या यथोत्तरम् ।। ७. वही, २८ १८०० : एवं च द्वाषष्टितमी प्रविष्टा निखिला तिथिः । एक षष्टिभागरूपा त्रैकषष्टितमे दिने ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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