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________________ उत्तरज्झयणाणि ७० अध्ययन ३ : श्लोक १ टि० २ (४) द्यूत-राजसभा का मंडप एक सौ आठ स्तंभ पर जब वह विवाह योग्य हुई, तब राजा के पूछने पर उसने कहाआधृत था। राजकुमार का मन राज्य-लिप्सा से आक्रान्त हो पिताजी! जो राधावेध कर पाएगा, वही मेरा पति होगा। गया। उसने राजा को मार डालना चाहा। अमात्य को इसका स्वयंवर की घोषणा हुई। एक अक्ष पर आठ चक्र और पता चला। उसने राजा से कहा-हमारे वंश की यह परम्परा उस पर एक पुतली स्थापित की गई। उसकी आंख को वींधने है कि जो राजकुमार राज्य-प्राप्ति के अनुक्रम को सहन नहीं की शर्त रखी। करता, उसे जुआ खेलना होता है और उस जुए में जीतने पर इन्द्रदत्त अपने पुत्रों के साथ वहां आया। सभी बाईस पुत्रों ही उसे राज्य प्राप्त हो सकता है। उसने पूछा-जीतने की शर्त ने पुतली की आंख को वींधने का प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ । क्या है? राजा ने कहा.....एक गांव तुम्हारा होगा, शेष हमारे। अन्त में अमात्य के कहने पर सुरेन्द्रदत्त आया। उसको स्खलित एक ही गांव में यदि तुम आठ सौ खेमों के एक-एक कोण को करने के अनेक प्रयत्न हुए, पर उसने पुतली की आंख को आठ सौ बार जीत लोगे तो तुम्हें राज्य सौंप दिया जाएगा। बींध डाला। लोगों ने जय-जयकार किया। उसे निर्वृति और राज्य जैसे यह दुर्लभ है, वैसे ही मनुष्य जन्म भी असंभव है। प्राप्त हुआ शेष पराजित होकर अपने-अपने देश चले गए। (५) रत्न-एक वृद्ध वणिक् के पास अनेक रत्न थे। जैसे उस पुतली की आंख को बींधना कठिन था, वैसे ही एक बार वृद्ध देशान्तर चला गया। पुत्रों ने सारे रत्न अन्यान्य मनुष्य जन्म दुष्कर है। व्यापारियों को बेच डाले। वृद्ध देशान्तर से आया और रत्नों के (८) चर्मः-एक तालाब था। वह पानी से लबालब भरा विक्रय की बात सुनकर चिन्तित हो गया। उसने पुत्रों से कहा- हुआ था। पूरे तालाब पर शैवाल छाई हुई थी। एक कछुआ उसमें बेचे हुए रत्नों को पुनः एकत्रित करो। पुत्र सारे परेशान हो गए, रहता था। एक बार उसने पानी में तैरते-तैरते एक स्थान पर क्योंकि उन्होंने सारे रत्न परदेशी व्यापारियों को बेच डाले थे। वे शैवाल में छिद्र देखा। उसने छिद्र में से ऊपर देखा। आकाश में सारे व्यापारी दूर-दूर तक चले गए थे। उनसे रत्न एकत्रित चांद चमक रहा था, तारे टिमटिमा रहे थे। कुछ क्षणों तक देखता करना असंभव था। वैसे ही मनुष्य जन्म पुनः प्राप्त होना दुर्लभ रहा। फिर सोचा, परिवार के सभी सदस्यों को यहां लाकर यह मनोरम दृश्य दिखाऊं। वह तत्काल गया और पूरे परिवार के (६) स्वप्न-एक कार्पटिक ने स्वप्न में देखा कि उसने साथ लौट आया। हटी हुई शैवाल पुनः एकाकार हो गई थी। छिद्र पूर्ण चन्द्रमा को निगल लिया है। उसका फल स्वप्न-पाठकों से नहीं मिला। सभी सदस्य निराश हो लौट गए। क्या पुनः वह पूछा। उन्होंने कहा, बड़ा घर मिलेगा। उसे मिल गया। दूसरे कभी छिद्र को पा सकेगा? वैसे ही मनुष्य जन्म को पुनः पाना कार्पटिक ने भी स्वप्न में सम्पूर्ण चन्द्र-मंडल को देखा। उसने भी दुष्कर है। स्वप्न पाटकों से इसका फल पूछा। वे बोले-तुम राजा बनोगे। (६) युग (जुआ)-एक अथाह समुद्र। समुद्र के एक उस देश का राजा सात दिन के बाद मर गया। अश्व की पूजा छोर पर जुआ है और छोर पर उसकी कील पड़ी है। उस कील कर उसे गांव में छोड़ा। वह उसी व्यक्ति के पास जाकर का जुए के छिद्र में प्रवेश होना असंभव है, उसी प्रकार मनुष्य हिनहिनाया। उसे पीट पर बिठा राजमहल ले आया। वह राजा जन्म भी दुर्लभ है। बन गया। कील उस अथाह पानी में प्रवाहित हो गई। बहते-बहते पहले कार्पटिक ने सोचा मैं भी ऐसा ही स्वप्न देखू । वह संभव है वह इस छोर पर आकर जुए के छिद्र में प्रवेश कर ले, दूध पीकर सो गया। क्या वैसा स्वप्न पुनः सुलभ हो सकता है? किन्तु मनुष्य जन्म से भ्रष्ट जीव पुनः मनुष्य जन्म नहीं पा कभी नहीं। वैसे ही मनुष्य जन्म पुनः सुलभ नहीं होता। सकता। (७) चक्र-इन्द्रदत्त इन्द्रपुर नगर का राजा था। उसके (१०) परमाणु-एक विशाल स्तंभ। एक देव उस स्तंभ बाईस पुत्र थे। एक बार वह अमात्य-पुत्री में आसक्त हो उसके का चूर्ण कर, एक नलिका में भर, मंदरपर्वत पर जाकर, उसे साथ एक रात रहा। वह गर्भवती हुई। उसने पुत्र का प्रसव फूंक से बिखेर देता है। स्तंभ के वे सारे परमाणु इधर-उधर किया। उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा। बिखर जाते हैं। राजा के सभी बाईस पुत्र और सुरेन्द्रदत्त कलाचार्य के क्या दूसरा कोई भी व्यक्ति पुनः उस परमाणुओं को पास शिक्षा ग्रहण करने लगे। सुरेन्द्रदत्त विनीत और अचंचल एकत्रित कर वैसे ही स्तंभ का निर्माण कर सकता है? कभी था। उसने कलाचार्य से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त कर ली। शेष नहीं। वैसे ही एक बार मनुष्य जीवन को व्यर्थ खो देने पर, पुनः राजकुमार स्थिर नहीं थे। वे वैसे ही रह गए। उसकी प्राप्ति दुष्कर होती है। मथुरा के अधिपति जितशत्रु की पुत्री का नाम निर्वृति था। इन सारी कथाओं का मूल आधार है नियुक्ति की गाथा।' उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १५६ : चुल्लग पासग थन्ने जूए रयणे य सुमिण चक्के य। चम्म जुगे परमाणू दस दिळेंता मणुअलंभे।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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