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________________ उत्तरज्झयणाणि ४५० अध्ययन २८ : श्लोक ७-१० टि० ८-१० उपयोगिता के विषय में सभी वैज्ञानिक एक मत नहीं हैं। वर्तनापरिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य (तत्त्वार्थ ५१२) ८. (श्लोक ७) दिया है। इसकी आंशिक तुलना वैशेषिक दर्शन के 'अपरस्मिन्नपरं, इस श्लोक में 'लोक' क्या है, इसका समाधान दिया गया युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिंगानि' (२।२।२६)-इस सूत्र से है। जैन-दृष्टि से जो धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पद्गल और की जा सकती है। जीवमय है, वह लोक है। इसी आगम में अन्य स्थलों में तथा श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार व्यावहारिक-काल मनुष्यदुसरों आगमों में भी 'लोक' की भिन्न-भिन्न परिभापाएं आई क्षेत्र प्रमाण है और औपचारिक द्रव्य है। नैश्चयिक-काल हैं। कहीं धर्मास्तिकाय को लोक कहा गया है, तथा कहीं जीव लोक-अलोक प्रमाण है। और अजीव को लोक कहा गया है। कहीं कहा है-लोक दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'काल' लोकव्यापी और पंचास्तिकायमय है। इन परिभाषाओं का निरूपण अपेक्षा-भेद अणुरूप है।" काल को स्वतन्त्र न मानने की परम्परा प्राचीन से किया गया है, अतः इन सबमें कोई विरोध नहीं है। मालूम पड़ती है। क्योंकि लोक क्या है? इस प्रश्न का उत्तर ९. (श्लोक ८) श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में एक-सा ही है कि 'लोक पंचास्तिकायमय है। जैनेतर दर्शनों में काल के सम्बन्ध में संख्या की दृष्टि से द्रव्यों के दो वर्गीकरण हैं-(१) एक नैश्चयिक और व्यावहारिक दोनों पक्ष मिलते हैं। नैयानिक और संख्या वाला और (२) अनेक संख्या वाला। धर्म, अधर्म और वैशेषिक काल को सर्वव्यापी और स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। आकाश संख्या से एक हैं और पुद्गल और जीव संख्या से सांख्य, योग तथा वेदांत आदि दर्शन काल को स्वतंत्र द्रव्य न अनेक । यह विभाग निष्कारण नहीं है। जो व्यापक होता है वह मान कर उसे प्रकृति-पुरुष का ही रूप मानते हैं। पहला पक्ष एक ही होता है, उसमें विभाग नहीं होते। 'एकं ब्रह्म' मानने व्यवहार मूलक है और दूसरा निश्चय-दृष्टि मूलक। वाले ब्रह्म को व्यापक मानते हैं। उसी प्रकार धर्म-अधर्म सम्पूर्ण श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से औपचारिक और दिगम्बर लोक में व्याप्त हैं तथा आकाश लोक और अलोक दोनों में। परम्परा की दृष्टि से वास्तविक काल के उपकार या लिंग पांच अतः व्यक्तिशः ये एक द्रव्य हैं। हैं .---(१) वर्तना, (२) परिणाम, (३) क्रिया, (४) परत्व और १०. काल का (कालो) (५) अपरत्व। काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की नैयायिकों के अनुसार परत्व, अपरत्व आदि काल के पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। लिंग हैं" और वे वैशेषिकों द्वारा प्रस्तुत काल सम्बन्धी वर्णन निश्चय-दृष्टि में काल जीव-अजीव की पर्याय है और को मान्य करते हैं। वैशेषिक दर्शन के पूर्व, अपर, युगपत्, व्यवहार-दृष्टि में वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने के कारण चिर और क्षिप्र--ये काल के लिंग माने हैं। काल सम्बन्धी उसकी उपयोगिता है। वह परिणाम का हेतु है, यही उसका यह पहला सत्र है। इसके द्वारा वे काल-तत्त्व को स्वतंत्र उपकार है। इसी कारण वह द्रव्य माना जाता है। काल के स्थापित करते हैं और आगे के तीन सत्रों से इसको द्रव्य, समय (अविभाज्य-विभाग) अनन्त हैं। नित्य, एक और समस्त कार्यों के निमित्त रूप से वर्णित करते काल को जीव-अजीव की पर्याय या स्वतन्त्र द्रव्य मानना-- हैं। ये दोनों मत आगम-ग्रन्थों में तथा उत्तरवर्ती-साहित्य में पाए नैयायिकों ने काल को नित्य माना है परन्तु मध्वाचार्य ने जाते हैं। प्रस्तुत श्लोक के अनुसार काल का लक्षण वर्तना काल का प्रकृति से उत्पन्न होना और उसी में लय होना माना है-'वत्तणालक्खणो कालो।' उमास्वाति ने काल का लक्षण- है।" प्रलय-काल में भी काल की उत्पत्ति मानी जाती है और १. विशेष जानकारी के लिए देखिए ( The Shorn Tlistory of Science (by८. (क) भगवई, १३५५। Dempiyon) (2) The Nature of the Physicoa World (by Sir Willington) and (3) (ख) पंचास्तिकाय, गाथा ३। Mysterious Universe (by Sir Jones Jcons). (ग) तत्त्वार्थ, भाष्य ३।६। २. भगवई, २१४१। ६. (क) न्यायकारिका, ४५ : ३. (क) उत्तरज्झयणाणि, ३६।२। जन्यानां जनकः कालो, जगतामाश्रयो मतः । (ख) ठाणं, २१४१७। (ख) वैशेषिक दर्शन, २।२।६-१०। ४. (क) भगवई, १३१५५। १०. तत्त्वार्थ सूत्र, ५२२। . (ख) लोकप्रकाश, २।३। ११. न्यायकारिका, ४६ : ठाणं, २३८७ : समयाति वा, आबलियाति वा, जीवाति वा, अजीवाति परापरत्वधीहेतुः क्षणादिः स्यादुपाधितः । वा पवुच्चति। १२. पंचाध्यायी, पृ० २५४ : दिग्देशकालाकाशेष्वथैवं प्रसंग। ६. तत्त्वार्थ सूत्र, ५।४० : सोऽनन्तसमयः । १३. वैशेषिक, सूत्र २।२।६। ७. द्रव्यसंग्रह, २२ : १४. वही, सूत्र २:२७,८,६। लोगागासपदेसे, एक्केक्के जे ठिया हु एक्केक्का। १५. पदार्थसंग्रह, पृ० ६३। रयणाणं रासी इव, ते कालाणू असंखदव्याणि ।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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