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मोक्ष-मार्ग-गति
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अध्ययन २८ : श्लोक १०,१२ टि० ११, १२
इसीलिए काल का आठवां हिस्सा 'प्रलय-काल' कहलाता है।' (8) अध्वाकाल-सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्धित काल में भी काल होता है-जैसे, 'इदानीं प्रातः कालः'। यहां काल। इदानीं काल-बाचक है। काल सवका आधार है। अनित्य होने काल के अन्य विभागों की जानकारी के लिए देखिएपर भी काल का प्रवाह नित्य है। यह सव कार्यों की उत्पत्ति का अनुयोगद्वार, सूत्र ४१३-४३३ । कारण भी है।
११. जीव का लक्षण है उपयोग (जीवो उवओगलक्षणो) पूर्व मीमांसा के समर्थ व्याख्याकार पार्थसार्थमिश्र संक्षेप में जीव का लक्षण 'उपयोग है'। उपयोग का अर्थ शास्त्रदीपिका की युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धांतचन्द्रिका में काल है--चेतना की प्रवृत्ति। चेतना के दो भेद हैं--(१) ज्ञान और तत्त्व विषयक मान्यता को स्पष्ट करते हुए वैशेषिक दर्शन की (२) दर्शन। इनके आधार पर उपयोग के दो रूप होते हैंमान्यता को स्वीकार करते हैं। केवल एक बात में भेद है- साकार और आनाकार। बैशेषिक काल को परोक्ष मानते हैं, मीमांसक प्रत्यक्ष मानते हैं। विश्व में दो प्रकार के पदार्थ हैं-(१) जड़ और (२)
सांख्य दर्शन में 'काल' नामक कोई स्वतन्त्र तत्त्व नहा चेतन। इन दोनों में भेद करने वाला गण 'उपयोग है। जिसमें है। उनके अनुसार काल प्राकृतिक परिणमन मात्र है। जड़
उपयोग है... ज्ञान, दर्शन की प्रवृत्ति है, वह जीव है और
योग जगत् प्रकृति का विकार है। इस विकार और परिणाम के
जिसमें यह नहीं है, वह अजीव है। आधार पर ही सांख्यों ने विश्वगत समस्त काल-साध्य व्यवहारों
इसके अगले श्लोक में जीव के लक्षण का विस्तार से की उत्पत्ति मानी है।
निरूपण हुआ है। उसमें कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, डॉ० आईंसटीन के अनुसार आकाश और काल कोई
तप, वीर्य और उपयोग-ये जीव के लक्षण हैं। इन सबको हम स्वतन्त्र तथ्य नहीं हैं। ये द्रव्य या पदार्थ के धर्म मात्र हैं।
दो भागों में बांट सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि जीव उन्होंने वस्तु का अस्तित्व चार दिशाओं में-लम्बाई, चौड़ाई,
के लक्षण दो हैं--(१) वीर्य और (२) उपयोग। ज्ञान और दर्शन गहराई और ऊंचाई–माना है। वस्तु का रेखागणित (ऊंचाई,
का उपयोग में समावेश हो जाता है तथा चारित्र और तप का लम्बाई, चौड़ाई) में प्रसार आकाश है और उनका क्रमानुगत प्रसार काल है। काल और आकाश दो भिन्न तथ्य नहीं हैं।
वीर्य में। इस प्रकार अपेक्षा-भेद से दोनों श्लोकों में जीव के ज्यों-ज्यों काल बीतता है, त्यों-त्यों वह लम्बा होता जा रहा है।
लक्षण का निरूपण किया गया है। काल आकाश-सापेक्ष है। काल की लम्बाई के साथ-साथ
गति करना, घटना, बढ़ना, फैलना आदि चेतन के लक्षण आकाश का भी प्रसार हो रहा है। इस प्रकार काल और
नहीं बन सकते। वे सभी क्रियाएं चेतन और अचेतन दोनों में आकाश दोनों वस्त-धर्म हैं। काल अस्तिकाय नहीं है क्योंकि होती हैं। ज्ञान-दर्शन की प्रवृत्ति ही उनकी भेद-रेखा हो सकती है। उसका स्कन्ध या तिर्यक् प्रचय नहीं होता। काल के अतीत १२. शब्द (सद्द) समय नष्ट हो जाते हैं, अनागत समय अनुत्पन्न होते हैं बारहवें श्लोक में पुद्गल के १० लक्षण गिनाए गए हैं। इसलिए उनका स्कन्ध नहीं होता। वर्तमान समय एक होता है, उनमें चार-वर्ण, रस, गंध और स्पर्श-पुद्गल के गुण हैं इसलिए उसका तिर्यक्-प्रचय नहीं होता।
और शेष छह-शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया और दिगम्बर-परम्परा के अनुसार कालाणुओं की संख्या आतप-पुद्गल के परिणाम या कार्य हैं। लक्षण दोनों ही बनते लोकाकाश के तुल्य है।
हैं। गुण सदा साथ ही रहते हैं, कार्य निमित्त मिलने पर काल के विभाग
अभिव्यक्त होते हैं। ये चारों गुण परमाणु और स्कंध-दोनों में काल चार प्रकार का होता है
विद्यमान रहते हैं परन्तु शब्द आदि कार्य स्कंधों के ही होते हैं।" (१) प्रमाणकाल-पदार्थ मापने का काल।
जैन-दर्शन के अनुसार शब्द पौद्गलिक, मूर्त और अनित्य (२) यथायुर्निवृत्तिकाल- जीवन के अवस्थान को है। यह पुद्गल का लक्षण या परिणाम माना जाता है। शब्द (३) मरणकाल-- (यथायुर्निवृत्तिकाल और का अर्थ है-पुद्गलों के संघात और विघात से होने वाले
उसके 'अन्त' को मरणकाल ध्वनि-परिणाम। कहते हैं।
काय-योग के द्वारा शब्द-प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण १. मध्यसिद्धान्तसार, पृ० ६३।
८. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, पृ० २३४ : स्पर्शादयः परमाणूनां स्कन्धानां च २. वही, पृ०६५।
भवन्ति, शब्दादयस्तु स्कंधानामेव व्यक्तिरूपेण भवन्ति। ३. पदार्थसंग्रह, पृ०६५।
६. भगवई, १३ १२४ : रुवी भंते ! भासा? अरुवी भासा? गोयमा ! ४. सांख्यप्रवचन, २१२ : दिक्कालाकाशादिभ्यः।
रूवी भासा नो अरुवी भासा।
१०. नवतत्त्व-साहित्य संग्रह, भाग २, पृ०२२ : शब्दान्धकारोधोतप्रभाच्छा५. मानव की कहानी, पृ० १२४५।
याऽऽतपवर्णगन्धरसस्पर्शा एते पुद्गलपरिणामाः पुद्गललक्षणं वेति भावः । ६. द्रव्यसंग्रह, २२॥
११. ठाणं, २२२०। ७. ठाणं, ४।१३४।
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