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________________ चित्र-सम्भूतीय २२५ अध्ययन १३ : आमुख “धिक्कार है हमारे रूप, यौवन, सौभाग्य और कला-कौशल धैर्य के साथ अनशन ग्रहण किया। को ! आज हम चाण्डाल होने के कारण प्रत्येक वर्ग से तिरस्कृत चक्रवर्ती सनत्कुमार ने जब यह जाना कि मन्त्री नमुचि हो रहे हैं। हमारा सारा गुण-समूह दूषित हो रहा है। ऐसा के कारण ही सभी लोगों को संत्रास सहना पड़ा है तो उसने जीवन जीने से लाभ ही क्या ?" उनका मन जीने से ऊब मन्त्री को बांधने का आदेश दिया। मन्त्री को रस्सों से बांध कर गया। वे आत्म-हत्या का दृढ़ संकल्प ले वहां से चले। एक मुनियों के पास लाए। मुनियों ने राजा को समझाया और उसने पहाड़ पर इसी विचार से चढ़े। ऊपर चढ़कर उन्होंने देखा कि मन्त्री को मुक्त कर दिया। चक्रवर्ती दोनों मुनियों के पैरों पर गिर एक श्रमण ध्यान-लीन हैं। वे साधु के पास आए और बैठ गए। पड़ा। रानी सुनन्दा भी साथ थी। उसने भी वन्दना की। ध्यान पूर्ण होने पर साधु ने उनका नाम-धाम पूछा। दोनों अकस्मात् ही उसके केश मुनि सम्भूत के पैरों को छू गए। मुनि ने अपना पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया। मुनि ने कहा-"तुम सम्भूत को अपूर्व आनन्द का अनुभव हुआ। उसने निदान अनेक कला-शास्त्रों के पारगामी हो। आत्म-हत्या करना करने का विचार किया। मुनि चित्र ने ज्ञान-शक्ति से यह जान नीच व्यक्तियों का काम है। तुम्हारे जैसे विमल-बुद्धि वाले लिया और निदान न करने की शिक्षा दी, पर सब व्यर्थ । मुनि व्यक्तियों के लिए यह उचित नहीं। तुम इस विचार को छोड़ो और सम्भूत ने निदान किया—“यदि मेरी तपस्या का फल है तो मैं जिन-धर्म की शरण में आओ। इससे तुम्हारे शारीरिक चक्रवर्ती बनूं।" और मानसिक-सभी दुःख उच्छिन्न हो जायेंगे।" उन्होंने दोनों मुनियों का अनशन चालू था। वे मर कर सौधर्म मुनि के वचन को शिरोधार्य किया और हाथ जोड़कर कहा- देवलोक में देव बने। वहां का आयुष्य पूरा कर चित्र का जीव “भगवन् ! आप हमें दीक्षित करें।” मुनि ने उन्हें योग्य पुरिमताल नगर में एक इभ्य सेठ का पुत्र बना और सम्भूत का समझ दीक्षा दी। गुरु-चरणों की उपासना करते हुए वे अध्ययन जीव कांपिल्यपुर के ब्रह्म राजा की रानी चुलनी के गर्भ में आया। करने लगे। कुछ समय बाद वे गीतार्थ हुए। विचित्र तपस्यायों से रानी ने चौदह महास्वप्न देखे। बालक का जन्म हुआ। उनका आत्मा को भावित करते हुए वे ग्रामानुग्राम विहार करने लगे। नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। एक बार वे हस्तिनापुर आए। नगर के बाहर एक उद्यान में राजा ब्रह्म के चार मित्र थे—(१) काशी का अधिपति ठहरे। एक दिन मास-क्षमण का पारणा करने के लिए मुनि कटक (२) गजपुर का राजा कणेरदत्त (३) कौशल देश का संभूत नगर में गए। भिक्षा के लिए वे घर-घर घूम रहे थे। मंत्री राजा दीर्घ और (४) चम्पा का अधिपति पुष्पचूल। राजा ब्रह्म का नमुचि ने उन्हें देख कर पहचान लिया। उसकी सारी स्मृतियां इनके साथ अगाध प्रेम था। वे सभी एक-एक वर्ष एक-दूसरे के सद्यस्क हो गईं। उसने सोचा--यह मुनि मेरा सारा वृत्तान्त राज्य में रहते थे। एक बार वे सब राजा ब्रह्म के राज्य में जानता है। वहां के लोगों के समक्ष यदि इसने कुछ कह समुदित हो रहे थे। उन्हीं दिनों की बात है, एक दिन राजा ब्रह्म डाला तो मेरी महत्ता नष्ट हो जाएगी। ऐसा विचार कर उसने को असह्य मस्तक-वेदना उत्पन्न हुई। स्थिति चिन्ताजनक बन लाठी और मुक्कों से मार कर मुनि को नगर से बाहर गई। राजा ब्रह्म ने अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को चारों मित्रों को सौंपते निकालना चाहा। कई लोग मुनि को पीटने लगे। मुनि शांत रहे। हुए कहा--"इसका राज्य तुम्हें चलाना है।" मित्रों ने स्वीकार परन्तु लोग जब अत्यन्त उग्र हो गए, तब मुनि का चित्त अशांत किया। हो गया। उनके मुंह से धुंआ निकला और सारा नगर अंध कुछ काल बाद राजा ब्रह्म की मृत्यु हो गई। मित्रों ने कारमय हो गया। लोग घबड़ाए। अब वे मुनि को शांत करने उसका अन्त्येष्टि-कर्म किया। उस समय कुमार ब्रह्मदत्त छोटी लगे। चक्रवर्ती सनत्कुमार भी वहां आ पहुंचा। उसने मुनि से अवस्था में था। चारों मित्रों ने विचार-विमर्श कर कौशल देश के प्रार्थना की--भंते ! यदि हम से कोई त्रुटि हुई हो तो आप क्षमा राजा दीर्घ को राज्य का सारा भार सौंपा और बाद में सब करें। आगे हम ऐसा अपराध नहीं करेंगे। आप महान् हैं। अपने-अपने राज्य की ओर चले गये। राजा दीर्घ राज्य की नगर-निवासियों को जीवन-दान दें।” इतने से मुनि का क्रोध व्यवस्था देखने लगा। सर्वत्र उसका प्रवेश होने लगा। रानी चुलनी शांत नहीं हुआ। उद्यान में बैठे मुनि चित्र ने यह संवाद सुना के साथ उसका प्रेम-बन्धन गाढ़ होता गया। दोनों निःसंकोच और आकाश को धूम्र से आच्छादित देखा। वे तत्काल वहां आए विषय-वासना का सेवन करने लगे। और उन्होंने मुनि सम्भूत से कहा-“मुने ! क्रोधानल को रानी के इस दुश्चरण को जानकर राजा ब्रह्म का विश्वस्त उपशांत करो, उपशांत करो! महर्षि उपशम-प्रधान होते हैं। वे मन्त्री धनु चिन्ताग्रस्त हो गया। उसने सोचा--"जो व्यक्ति अधम अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते। तुम अपनी शक्ति का संवरण आचरण में फंसा हुआ है, वह भला कुमार ब्रह्मदत्त का क्या हित करो!" मुनि संभूत का मन शान्त हुआ। उन्होंने तेजोलेश्या का साथ सकेगा ?" संवरण किया। अन्धकार मिट गया। लोग प्रसन्न हुए। दोनों मुनि उसने रानी चुलनी और राजा दीर्घ के अवैध-सम्बन्ध की उद्यान में लौट गए। उन्होंने सोचा—“हम काय-संलेखना कर बात अपने पुत्र वरधनु के माध्यम से कुमार तक पहुंचाई। चुके हैं, इसलिए अब हमें अनशन करना चाहिए।" दोनों ने बड़े कुमार को यह बात बहुत बुरी लंगी। उसने एक उपाय ढूंढा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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