SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरज्झयणाणि २२६ अध्ययन १३ : आमुख एक कौवे और एक कोकिल को पिंजरे में बन्द कर अन्तःपुर में दूर जा कर ठहरे। लम्बी यात्रा के कारण घोड़े खिन्न हो कर गिर ले गया और रानी चुलनी को सुनाते हुए कहा—“जो कोई भी पड़े। अब वे दोनों वहां से पैदल चले। वे चलते-चलते वाराणसी अनुचित सम्बन्ध जोड़ेगा, उसे मैं इसी प्रकार पिंजरे में डाल पहुंचे। राजा कटक ने जब यह संवाद सुना, तब वह बहुत ही दूंगा।" राजा दीर्घ ने यह बात सुनी। उसने चुलनी से कहा-“कुमार प्रसन्न हुआ और उसने पूर्ण सम्मान से कुमार ब्रह्मदत्त का ने हमारा सम्बन्ध जान लिया है। मुझे कौवा और तुम्हें कोयल नगर में प्रवेश करवाया। अपनी पुत्री कटकावती से उसका मान संकेत दिया है। अब हमें सावधान हो जाना चाहिए।" विवाह किया। राजा कटक ने दूत भेजकर सेना सहित पुष्पचूल चुलनी ने कहा-“वह अभी बच्चा है। जो कुछ मन में आता को बुला लिया। मन्त्री धनु और राजा कणेरदत्त भी वहां आ है कह देता है।” राजा दीर्घ ने कहा-“नहीं, ऐसा नहीं है। वह पहुंचे। और भी अनेक राजा मिल गए। उन सबने वरधनु को हमारे प्रेम में बाधा डालने वाला है। उसको मारे बिना अपना सेनापति के पद पर नियुक्त कर कांपिल्यपुर पर चढ़ाई कर दी। सम्बन्ध नहीं निभ सकता।" चुलनी ने कहा-"जो आप कहते घमासान युद्ध हुआ। राजा दीर्घ मारा गया। “चक्रवर्ती की विजय हैं, वह सही है किन्तु उसे कैसे मारा जाये? लोकापवाद से भी हुई”—यह घोष चारों और फैल गया। देवों ने आकाश से फूल तो हमें डरना चाहिए।" राजा दीर्घ ने कहा—“जनापवाद से बरसाए। “बारहवां चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है”—यह नाद हुआ। बचने के लिए पहले हम इसका विवाह कर दें, फिर ज्यों-त्यों सामन्तों ने कुमार ब्रह्मदत्त का चक्रवर्ती के रूप में अभिषेक इसे मार देंगे।" रानी ने बात मान ली। किया। एक शुभ वेला में कुमार का विवाह सम्पन्न हुआ। उसके राज्य का परिपालन करता हुआ ब्रह्मदत्त सुखपूर्वक रहने शयन के लिए राजा दीर्घ ने हजार स्तम्भ वाला एक लाक्षा-गृह लगा। एक बार एक नट आया। उसने राजा से प्रार्थना कीबनवाया। “मैं आज मधुकरी गीत नामक नाट्य-विधि का प्रदर्शन करना इधर मन्त्री धनु ने राजा दीर्घ से प्रार्थना की--"स्वामिन् ! चाहता हूं।” चक्रवर्ती ने स्वीकृति दे दी। अपरान्ह में नाटक होने मेरा पुत्र वरधनु मन्त्री-पद का कार्यभार संभालने के योग्य हो लगा। उस समय एक कर्मकरी ने फूल-मालाएं लाकर राजा के गया है। मैं अब कार्य से निवृत्त होना चाहता हूं।" राजा ने सामने रखीं। राजा ने उन्हें देखा और मधुकरी गीत सुना। तब उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और छलपूर्वक कहा-“तुम और चक्रवर्ती के मन में एक विकल्प उत्पन्न हुआ---“ऐसा नाटक कहीं जाकर क्या करोगे? यहीं रहो और दान आदि धर्मों का उसके पहले भी इसने कहीं देखा है।" वह इस चिन्तन में लीन पालन करो।" मन्त्री ने राजा की बात मान ली। उसने नगर के हुआ और उसे पूर्व-जन्म की स्मृति हो आई। उसने जान लिया बाहर गङ्गा नदी के तट पर एक विशाल प्याऊ बनाया। वहां कि ऐसा नाटक मैंने सौधर्म देवलोक के पद्मगुल्म नामक विमान वह पथिकों और परिव्राजकों को प्रचुर अन्न-पान देने लगा। में देखा था। दान और सम्मान से वशीभूत हुए पथिकों और परिव्राजकों द्वारा इसकी स्मृति मात्र से वह मूछित होकर भूमि पर गिर उसने लाक्षा-गृह से प्याऊ तक एक सुरंग खुदवाई। राजा-रानी पड़ा। पास में बैठे हुए सामन्त उटे, चन्दन का लेप किया। राजा को बात ज्ञात नहीं हुई। की चेतना लौट आई। सम्राट् आश्वस्त हुआ। पूर्वजन्म के भाई रानी चुलनी ने कुमार ब्रह्मदत्त को अपनी नववधू के की याद सताने लगी। उसकी खोज करने के लिए एक मार्ग साथ उस लाक्षा-गृह में भेजा। दोनों वहां गए। रानी ने शेष ढूंढा। रहस्य को छिपाते हुए सम्राट् ने महामात्य वरधनु से सभी ज्ञाति-जनों को अपने-अपने घर भेज दिया। मन्त्री का कहा—आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा'पुत्र वरधनु वहीं रहा। रात्रि के दो पहर बीते। कुमार ब्रह्मदत्त इस श्लोकार्द्ध को सब जगह प्रचारित करो और यह घोषणा गाढ़ निद्रा में लीन था। वरधनु जाग रहा था। अचानक करो कि इस श्लोक की पूर्ति करने वाले को सम्राट् अपना आध लाक्षा-गृह एक ही क्षण में प्रदीप्त हो उठा। हाहाकार मचा। राज्य देगा। प्रतिदिन यह घोषणा होने लगी। यह अर्द्धश्लोक कुमार जागा और दिङ्मूढ़ बना हुआ वरधनु के पास आ दूर-दूर तक प्रसारित हो गया और व्यक्ति-व्यक्ति को कण्ठस्थ हो बोला-“यह क्या हुआ? अब क्या करें?" वरधनु ने कहा-“यह गया। राज-कन्या नहीं है, जिसके साथ आपका पाणि-ग्रहण हुआ है। इधर चित्र का जीव देवलोक से च्युत हो कर पुरिमताल इसमें प्रतिबन्ध करना उचित नहीं है। चलो हम चलें।" उसने नगर में एक इभ्य सेठ के घर जन्मा। युवा हुआ। एक दिन कुमार ब्रह्मदत्त को एक सांकेतिक स्थान पर लात मारने पूर्वजन्म की स्मृति हुई और वह मुनि बन गया। एक बार को कहा। कुमार ने लात मारी। सुरंग का द्वार खुल गया। वह ग्रामानुग्राम विहार करते-करते वहीं कांपिल्यपुर में आया और उसमें घुसे। मन्त्री ने पहले ही अपने दो विश्वासी पुरुष सुरंग मनोरम नाम के कानन में ठहरा। एक दिन वह कायोत्सर्ग कर के द्वार पर नियुक्त कर रखे थे। वे घोड़ों पर चढ़े हुए थे। ज्यों रहा था। उसी समय रहंट को चलाने वाला एक व्यक्ति वहां बोल ही कुमार ब्रह्मदत्त और वरधनु सुरंग से बाहर निकले त्यों ही उठाउन्हें घोड़ों पर चढ़ा दिया। वे दोनों वहां से चले। पचास योजन "आस्व दासा मृगौ हंसौ, मातंगावमरी तथा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy