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________________ आमुख इस अध्ययन में चित्र और संभूत के पारस्परिक सम्बन्ध था। नमुचि उसका मंत्री था। एक बार उसके किसी अपराध और विसम्बन्ध का निरूपण है, इसलिए इसका नाम 'चित्तसंभूइज्जं' पर राजा क्रुद्ध हो गया और वध की आज्ञा दे दी। चाण्डाल 'चित्र-संभूतीय' है। भूतदत्त को यह कार्य सौंपा गया। उसने नमुचि को अपने घर में उस काल और उस समय साकेत नगर में चन्द्रावतंसक छिपा लिया और कहा-“मंत्रिन् ! यदि आप मेरे तल-घर राजा का पुत्र मुनिचन्द्र राज्य करता था। राज्य का उपभोग में रहकर मेरे दोनों पुत्रों को अध्यापन कराना स्वीकार करें तो करते-करते उसका मन काम-भोगों से विरक्त हो गया। उसने मैं आपका वध नहीं करूंगा।" जीवन की आशा में मंत्री ने मुनि सागरचन्द के पास दीक्षा ग्रहण की। वह अपने गुरु के बात मान ली। अब वह चाण्डाल के पुत्रों—चित्र और संभूत को साथ-साथ देशान्तर जा रहा था। एक बार वह भिक्षा लेने गांव पढ़ाने लगा। चाण्डालपत्नी नमुचि की परिचर्या करने लगी। में गया, पर सार्थ से बिछुड़ गया और एक भयानक अटवी में कुछ काल बीता। नमुचि चाण्डाल-स्त्री में आसक्त हो गया। जा पहुंचा। वह भूख और प्यास से व्याकुल हो रहा था। वहां भृतदत्त ने यह बात जान ली। उसने नमुचि को मारने का चार ग्वाल-पुत्र गाएं चरा रहे थे। उन्होंने मुनि की अवस्था देखी। विचार किया। चित्र और संभूत दोनों ने अपने पिता के विचार उनका मन करुणा से भर गया। उन्होंने मुनि की परिचर्या की। जान लिए। गुरु के प्रति कृतज्ञता से प्रेरित हो उन्होंने नमुचि को मुनि स्वस्थ हुए। चारों ग्वाल-बालकों को धर्म का उपदेश दिया। कहीं भाग जाने की सलाह दी। नमुचि वहां से भागा-भागा चारों बालक प्रतिबुद्ध हुए और मुनि के पास दीक्षित हो गए। वे हस्तिनापुर में आया और चक्रवर्ती सनत्कुमार का मंत्री बन सभी आनन्द से दीक्षा-पर्याय का पालन करने लगे। किन्तु उनमें गया। से दो मुनियों के मन में मैले कपड़ों के विषय में जुगुप्सा रहने चित्र और संभूत बड़े हुए। उनका रूप और लावण्य लगी। चारों मर कर देव-गति में गए। जुगुप्सा करने वाले दोनों आकर्षक था। नृत्य और संगीत में वे प्रवीण हुए। वाराणसी के देवलोक से च्युत हो दशपुर नगर में शांडिल्य ब्राह्मण की दासी लोग उनकी कलाओं पर मुग्ध थे। यशोमती की कुक्षी से युगल रूप में जन्मे । वे युवा हुए। एक बार एक बार मदन-महोत्सव आया। अनेक गायक-टोलियां वे जंगल में अपने खेत की रक्षा के लिए गए। रात हो गई। मधुर राग में अलाप रही थीं और तरुण-तरुणियों के अनेक गण वे एक वट वृक्ष के नीचे सो गए। अचानक ही वृक्ष की कोटर नृत्य कर रहे थे। उस समय चित्र-संभूत की नृत्य-मण्डली भी से एक सर्प निकला और एक को डस कर चला गया। वहां आ गई। उनका गाना और नृत्य सबसे अधिक मनोरम था। दूसरा जागा। उसे यह बात मालूम हुई। तत्काल ही वह सर्प उसे सुन और देख कर सारे लोग उनकी मण्डली की ओर चले की खोज में निकला। वही सर्प उसे भी डस गया। दोनों मर आए। युवतियां मंत्र-मुग्ध सी हो गयीं। सभी तन्मय थे। ब्राह्मणों कर कालिंजर पर्वत पर एक मृगी के उदर से युगल रूप में ने यह देखा। मन में ईर्ष्या उभर आई। जातिवाद की आड़ ले उत्पन्न हुए। एक बार दोनों आसपास चर रहे थे। एक व्याध वे राजा के पास गए और सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजा ने ने एक ही बाण से दोनों को मार डाला। वहां से मर कर वे दोनों मातंग-पुत्रों को नगर से निकाल दिया। वे अन्यत्र चले गंगा नदी के तीर पर एक राजहंसिनी के गर्भ में आए। युगल गए। रूप में जन्मे। वे युवा बने। वे दोनों साथ-साथ घूम रहे थे। एक कुछ समय बीता। एक बार कौमुदी-महोत्सव के अवसर बार एक मछुए ने उन्हें पकड़ा और गर्दन मरोड़ कर मार पर वे दोनों मातंग-पुत्र पुनः नगर में आए। वे मुंह पर कपड़ा डाला। डाले महोत्सव का आनन्द ले रहे थे। चलते-चलते उनके मुंह उस समय वाराणसी नगरी में चाण्डालों का एक अधिपति से संगीत के स्वर निकल पड़े। लोग अवाक् रह गए। वे उन रहता था। उसका नाम था भूतदत्त । वह बहुत समृद्ध था। वे दोनों के पास आए। आवरण हटाते ही उन्हें पहचान गए। दोनों हंस मर कर उसके पुत्र हुए। उनका नाम चित्र और संभूत उनका रक्त ईर्ष्या से उबल गया। "ये चाण्डाल-पुत्र हैं".-ऐसा रखा गया। दोनों भाइयों में अपार स्नेह था। कहकर उन्हें लातों और चाटों से मारा और नगर से बाहर उस समय वाराणसी नगरी में शङ्ख राजा राज्य करता निकाल दिया। वे बाहर एक उद्यान में ठहरे। उन्होंने सोचा उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३३२ : चित्तेसंभूआउं वेअंतों, भावओ अ नायव्यो। तत्तो समुट्टिअमिणं, अज्झयणं चित्तसंभूयं ।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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