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________________ परीषह-प्रविभक्ति ३३ अध्ययन २ : श्लोक १-७ २०. प्रज्ञा परीषह, २१. अज्ञान परीषह, २२. दर्शन परीषह। परीषहों का जो विभाग कश्यप-गोत्रीय भगवान् महावीर के द्वारा प्रवेदित या परूपित है, उसे मैं क्रमवार कहता हूं। तू मुझे सुन। पुरक्कारपरीसहे, २०. पन्नापरीसहे, पुरस्कारपरीषहः, २०. प्रज्ञा२१. अन्नाणपरीसहे, २२. दंसण- परीषहः, २१. अज्ञानपरीषहः, परीसहे। २२. दर्शनपरीषहः। १. परीसहाणं पविभत्ती परीषहाणां प्रविभक्तिः कासवेणं पवेइया। काश्यपेन प्रवेदिता। तं भे उदाहरिस्सामि तां भवतामुदाहरिष्यामि आणुपुब्बिं सुणेह मे।। आनुपूर्व्या शृणुत मे।। (१) दिगिंछापरीसहे (१) 'दिगिंछा'-परीषहः २. दिगिंछापरिगए देहे 'दिगिंछा' परिगते देहे तवस्सी भिक्खु थामवं। तपस्वी भिक्षुः स्थामवान्। न छिंदे न छिन्दावए न छिन्द्यात् न छेदयेत् न पए न पयावए।। न पचेत न पाचयेत्।। ३. कालीपव्वंगसंकासे कालीपर्वाङ्गसङ्काशः किसे धमणिसंतए। कृशो धमनिसन्ततः। मायण्णे असणपाणस्स मात्रज्ञोऽशनपानयोः अदीणमणसो चरे।। आदीनमनाश्चरेत् ।। (१) क्षुधा परीषह देह में क्षुधा व्याप्त होने पर तपस्वी और प्राणवान् भिक्षु फल आदि का छेदन न करे, न कराए। उन्हें न पकाए और न पकवाए। शरीर के अंग भूख से सूखकर काकजंघा' नामक तृण जैसे दुर्बल हो जाएं, शरीर कृश हो जाए, धमनियों का ढांचा भर रह जाए तो भी आहार-पानी की मर्यादा को जानने वाला साधु अदीनभाव से विहरण करे। (२) पिपासा परीषह अहिंसक या करुणाशील' लज्जावान् संयमी साधु प्यास से पीड़ित होने पर सचित पानी का सेवन न करे, किन्तु प्रासुक जल की एषणा करे। (२) पिपासापरीषहः (२) पिवासापरीसहे ४. तओ पुट्ठो पिवासाए दोगुंछी लज्जसंजए। सीओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे।। ५. छिन्नावाएसु पंथेसु आउरे सुपिवासिए। परिसुक्कमुहेऽदीणे तं तितिक्खे परीसहं।। (३) सीयपरीसहे ६. चरंतं विरयं लूहं सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं मुणी गच्छे सोच्चाणं जिणसासणं।। ततः स्पृष्टः पिपासया जुगुप्सी लज्जासंयतः। शीतोदकं न सेवेत 'वियडस्स' एषणां चरेत्।। छिन्नापातेषु पथिषु आतुरः सुपिपासितः। परिशुष्कमुखोऽदीनः तं तितिक्षेत परीषहम् ।। निर्जन मार्ग में जाते समय प्यास से अत्यंत आकुल हो जाने पर, मुंह सूख जाने पर भी साधु अदीनभाव से प्यास के परीषह को सहन करे। (३) शीतपरीषहः (३) शीत परीषह चरन्तं विरतं रूक्षं शीतं स्पृशति एकदा। नातिवेलं मुनिर्गच्छेत् श्रुत्वा जिनशासनम् ।। विचरते हुए विरत और रूक्ष शरीर वाले साधु को° शीत ऋतु में सर्दी सताती है। फिर भी वह जिन-शासन को सुनकर (आगम के उपदेश को ध्यान में रखकर) स्वाध्याय आदि की वेला (अथवा मर्यादा) का अतिक्रमण न करे। शीत से प्रताड़ित होने पर मुनि ऐसा न सोचे-मेरे पास शीत-निवारक घर आदि नहीं हैं और छवित्राण (वस्त्र, कम्बल आदि) भी नहीं है, इसलिए मैं अग्नि का सेवन करूं। ७. न मे निवारणं अत्थि छवित्ताणं न विज्जई। अहं तु अग्गिं सेवामि इइ भिक्खू न चिंतए।। न मे निवारणमस्ति छवित्राणं न विद्यते अहं तु अग्नि सेवे इति भिक्षुर्न चिन्तयेत्।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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