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________________ निरसन । ३८-३६ अग्नि का समारम्भ और जल का स्पर्श पाप-बन्ध का हेतु। ४० सोमदेव द्वारा यज्ञ के बारे में जिज्ञासा । ४१, ४२ मुनि द्वारा वास्तविक यज्ञ का निरूपण । (३१) तेरहवां अध्ययन चित्र सम्भूतीय (चित्र और सम्भूति का श्लोक १२ सम्भूति का ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में काम्पिल्य में और चित्र का पूरिमताल में श्रेष्ठि-कुल में जन्म। ३ चित्र और सम्भूति का मिलन और सुख-दुःख के विपाक की वार्ता । ४-७ ब्रह्मदत्त द्वारा पूर्व भवों का वर्णन । ८ मुनि द्वारा पूर्व जन्म में कृत निदान की स्मृति दिलाना । ६ चक्रवर्ती द्वारा पूर्व कृत शुभ अनुष्ठानों से प्राप्त सुख भोगों का वर्णन मुनि से सुख के बारे में प्रश्न । १०-१२ मुनि द्वारा कृत कर्मों को भोगने की अनिवार्यता । अपनी चक्रवर्ती सम समृद्धि का उल्लेख | स्थविरों की गाथा से श्रामण्य स्वीकार । १३,१४ चक्रवर्ती द्वारा प्रचुर धन-सम्पदा और स्त्री-परिवृत होकर भोग भोगने का आग्रह । प्रव्रज्या की कष्टमयता । १५ मुनि का चक्रवर्ती को वैराग्य उपदेश । १६ काम - राग की दुःखकारिता । १७ काम-गुण-रत की अपेक्षा विरक्त को अधिक सुख } १८ चाण्डाल जाति में उत्पत्ति और लोगों का विद्वेष । १६ वर्तमान की उच्चता पूर्व संचित शुभ कर्मों का फल । २० अशाश्वत भोगों को छोड़ने का उपदेश । २१ शुभ अनुष्ठानों के अभाव में भविष्य में पश्चात्ताप । ७ जीवन की अनित्यता । मुनि-चर्या के लिए अनुमति । ८पिता द्वारा समझाने का प्रयास अपुत्र की गति नहीं । ६ वेदाध्ययन, ब्राह्मणों को दान और पुत्रोत्पत्ति के बाद मुनि बनने का परामर्श । १०, ११ कुमारों का पुरोहित को उत्तर । १२ वेदाध्ययन, ब्राह्मण भोजन और औरस पुत्र की अत्राणता । १३ काम भोगों द्वारा क्षण भर सुख तथा चिरकाल तक दुःख की प्राप्ति । १४, १५ कामना जन्म और मृत्यु की हेतु । १६ प्रचुर धन और स्त्री की सुलभता में श्रमण बनने की उत्कण्ठा के लिए पिता का प्रश्न । १७ धर्म धुरा में धन और विषयों की निष्प्रयोजनता । १८ पिता द्वारा शरीर नाश के साथ जीवनाश का प्रतिपादन । १६ कुमारों द्वारा आत्मा की अमूर्तता का प्रतिपादन । आत्मा Jain Education International ४३ सोमदेव द्वारा ज्योति और उसकी सामग्री के बारे में जिज्ञासा। ४४ मुनि द्वारा आत्म-परक ज्योति का विश्लेषण । ४५ सोमदेव द्वारा तीर्थ के बारे में जिज्ञासा । ४६,४७ मुनि द्वारा तीर्थ का निरूपण । संवाद ) पृ० २२३-२३६ २२ अन्त काल में मृत्यु द्वारा हरण माता-पिता आदि की असहायता । कर्म द्वारा कर्त्ता का अनुगमन । केवल कर्मों के साथ आत्मा का परभव-गमन । शरीर को जला कर ज्ञातियों द्वारा दूसरे दाता का अनुसरण । २६ जीवन की क्षणभंगुरता। बुढ़ापा द्वारा कांति का अपहरण । कर्म-अर्जन न करने का उपदेश । २३ २४ २५ २७-३० चक्रवर्ती द्वारा अपनी दुर्बलता का स्वीकार । सनत्कुमार को देख कर निदान करने का उल्लेख । प्रायश्चित्त न कर पाने के कारण दलदल में फंसे हाथी की तरह धर्मानुसरण करने में असमर्थता और काम - मूर्च्छा । ३१ जीवन की अस्थिरता । ३२ ३३ भोगों द्वारा मनुष्य का त्याग। आर्य-कर्म करने का उपदेश । चौदहवां अध्ययन इषुकारीय (ब्राह्मण और श्रमण संस्कृति का भेद-दर्शन) श्लोक १-३ अध्ययन का उपक्रम और निष्कर्ष । ४,५ पुरोहित-कुमारों द्वारा निर्ग्रन्थों को देखना। पूर्व जन्म की स्मृति और काम-गुणों से विरक्ति । ६ धर्म श्रद्धा से प्रेरित होकर पिता से निवेदन । राजा की भोग छोड़ने में असमर्थता और मुनि का वहां से गमन । ३४ चक्रवर्ती का नरक-गमन । ३५ चित्र की अनुत्तर सिद्धि प्राप्ति । २५ २६ के आंतरिक दोष ही संसारबन्धन के हेतु । २० धर्म की अजानकारी में पाप का आचरण । २१ पीड़ित लोक में सुख की प्राप्ति नहीं। २२ लोक की पीड़ा क्या ? पृ० २३७-२५२ २३ लोक की पीड़ा मृत्यु । २४ अधर्म रत व्यक्ति की रात्रियां निष्फल । धर्म -रत व्यक्ति की रात्रियां सफल । यौवन बीतने पर एक साथ दीक्षा लेने का पिता का सुझाव । २७ मृत्यु को वश में करने वाला ही कल की इच्छा करने में समर्थ । २८ आज ही मुनि धर्म स्वीकारने का संकल्प । २६,३० पिता की भी पुत्रों के साथ ही गृह त्याग की भावना । शाखा रहित वृक्ष, बिना पंख का पक्षी, सेना रहित राजा और धन-रहित व्यापारी की तरह असहाय । -३१ वाशिष्टी द्वारा प्राप्त भोगों को भोगने के बाद मोक्ष- पथ के स्वीकार का सुझाव । ३२ पुरोहित द्वारा भोगों की असारता का कथन। मुनि-धर्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003626
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Uttarajjhayanani Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages770
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size25 MB
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